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________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-लिंग नामक दूसरा द्वार-कुलबालक मुनि की कथा प्रस्थान में सार्थपति समान सद्गुरु प्रति प्रद्वेष करता है, वह कुलवालक मुनि के समान शीघ्र आराधना रूपी धर्म के महान् निधान की प्राप्ति से भ्रष्ट होता है ।। १२२९ ।। उसकी कथा इस प्रकार है :― कुलवालक मुनि की कथा चरण करण आदि गुणमणि के प्रादुर्भाव के लिए रोहणाचल समान, उत्तम संघयण वाले, मोहमल्ल को जीतने वाले, महान् महिमा से किसी के द्वारा पराभव नहीं होने वाले और अनेक शिष्य परिवार युक्त संगमसिंह नामक आचार्य थे। उनका प्रकृति से उद्धत स्वभाव वाला एक शिष्य था। वह अपनी बुद्धि अनुसार दुष्कर तप आदि करता था, परन्तु कदाग्रह के कारण आज्ञानुसार चारित्र का पालन नहीं करता था। उसे आचार्यजी प्रेरणा करते थे कि - कठिनाई से समझ सके ऐसे हे दुष्ट ! इस तरह शास्त्र विरुद्ध कष्ट सहन करने से आत्मा को निष्फल सन्ताप क्यों कर रहा है? आणाएच्चिय चरणं तब्भंगे जाण किं न भग्गंति । आणं वइक्कमंतो कस्साएसा कुणसि सेसं ।। १२३४।। आज्ञा पालन में ही चारित्र है। उस आज्ञा का खंडन होने बाद समझ कि क्या शेष रहता है? अर्थात् आज्ञा बिना की प्रत्येक प्रवृत्ति विराधना रूप और आज्ञा का उल्लंघनकर तूं शेष अनुष्ठान करता है वह किस की आज्ञा से करता है? ।।१२३४ ।। ऐसा उपदेश देने से गुरु के प्रति वह उग्र वैरभाव रखने लगा। किसी दिन उसे अकेले को साथ लेकर गुरु महाराज सिद्ध शिला (सिद्धाचल तीर्थ) पर वंदन करने पर्वत पर चढ़े, और वहाँ चिरकाल नमस्कार कर धीरे-धीरे उतरने लगे। तब उस दुर्विनीत ने विचार किया कि वास्तविक यह अच्छा मौका मिला है, कि जिससे दुर्वचनों का भण्डार रूप इन आचार्य को मैं यही मार दूँ । यदि इस समय यह असहायक होने पर भी इसकी मैं उपेक्षा करूँगा तो जिन्दगी तक दुष्ट वचनों द्वारा मेरा तिरस्कार होगा। ऐसा सोचकर आचार्यश्रीजी को मारने के लिए पीछे चलते उसने बड़ी पत्थर की शिला को धक्का देकर गिरायी, और किसी तरह से गुरुजी ने उसे देख लिया और उससे शीघ्र हटकर आचार्यश्री ने कहा- हे महादुराचारी ! गुरु का शत्रु ! यह अत्यन्त महापाप में तूं क्यों उद्यम करता है? लोक व्यवहार को भी क्या तूं नहीं जानता कि जिनके उपकारों के बदले में समग्र तीन लोक का दान भी अल्प है, ऐसे उपकार को तूं मारने की बुद्धि करता है? कई शिष्य इस पृथ्वी पर गुरु का केवल उपकार ही मानते हैं और दूसरा तेरे समान दीर्घ समय से अच्छी तरह से पालन करने पर भी मारने की तैयारी करता है । अथवा कुपात्र का संग्रह करने से निश्चय ऐसा ही परिणाम आता है, न कयाइ महाविसविसहरेणसह निव्वहइ मेत्ती ।। १२४३ || महाजहरी सर्प के साथ मित्रता कभी नहीं हो सकती। पापी ! इस प्रकार के महान् पापकर्मों से सुकृत पुण्य को मूल में से खत्म कर देता है और इससे सर्वज्ञ धर्म पालन करने में तूं अत्यन्त अयोग्य है तेरे इस पाप से निश्चय ही स्त्री के सम्बन्ध से तेरे चारित्र का नाश होगा, ऐसा श्राप देकर आचार्यश्री जिस तरह यात्रा करने गये उसी तरह वे वापिस आये । अब ऐसा करूँ कि जिससे आचार्यश्री के वचन को असत्य बना दूँ। ऐसा सोचकर वह कुशिष्य अरण्य भूमि में गया। वहाँ मनुष्य के संचार बिना एक तापस के आश्रम में रहा और नदी के किनारे पर उग्र तप करने लगा। उसके बाद वर्षाकाल आया, तब उसके तप के प्रभाव से प्रसन्न होकर देवी ने 'इस साधु को पानी द्वारा नदी खींचकर न ले जाये' ऐसा विचारकर नदी का प्रवाह सामने किनारे पर घुमा दिया। इस तरह नदी का प्रवाह दूसरे किनारे पर बहते हुए देखकर उस प्रदेश के निवासी लोगों ने उसके गुण अनुसार उसका नाम कूलवालक रखा। उस मार्ग से प्रस्थान करते सार्थवाहों के पास से भिक्षा लेकर जीवन व्यतीत करता था। इसके बाद जो हुआ व 58 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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