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________________ समाधि लाभ द्वार-भावना पटल नामक चौदहवाँ द्वार-वणिक पुत्र की कथा श्री संवेगरंगशाला कुर्शात देश में शौरिपुर, (९) पंचाल देश में कंपिल्लपुर, (१०) जंगला देश में अहिछत्रा, (११) सोरठ देश में द्वारामती, (१२) विदह में मिथिला, (१३) वच्छ देश में कौशाम्बी, (१४) शांडिल्य देश में नंदिपुर, (१५) मलय देश में भद्दिलपुर, (१६) वच्छ देश में वैराट, (१७) अच्छ देश में वरणा, (१८) दर्शाण में मर्तिकावती, (१९) चेदी में शुक्तिमती, (२०) सिंधु सौवीर में वीतभयनगर, (२१) सूरसेन में मथुरा, (२२) भंगी देश में पावापुरी, (२३) वर्ता (वच्छ) देश में मासपुरी, (२४) कुणाल में श्रावस्ती, (२५) लाढ देश में कोटि वर्षनगर और अर्ध कैकेय देश में श्वेतांबिका नगरी, ये सभी देश आर्य कहे हैं। इस देश में ही श्री जिनेश्वर, चक्रवती, बलदेव और वासुदेवों के जन्म होते हैं ।।८८१० ।। इसमें पूर्व दिशा में अंग और मगध देश तक दक्षिण में कौशाम्बी तक, पश्चिम में थूण देश तक और उत्तर में कुणाल देश तक दक्षिण में कौशाम्बी तक, पश्चिम में थूण देश तक और उत्तर में कुणाल देश तक आर्य क्षेत्र है। इस क्षेत्र में साधुओं को विहार करना कल्पता है परन्तु इससे बाहर जहाँ ज्ञानादि गुण की वृद्धि न हो वहाँ विचरना अयोग्य है। और जहाँ ज्ञानादि गुण रत्नों के निधान और वचन रूपी किरणों से मिथ्यात्व रूप अन्धकार को नाश करने वाले मुनिवर्य विचरते नहीं हैं, वहाँ प्रचण्ड पाखंडियों के समूह के वचन रूप प्रचंड वचनों से प्रेरित बोधि, वायु से उड़ी हुई रूई की पूणी के समान स्थिर रहनी अति दुर्लभ है। इस तरह हे देवानु प्रिय ! बोधि की अति दुर्लभता को जानकर और भयंकर संसार में चिरकाल तक भ्रमण करने के बाद उसे प्राप्त करके अब तुझे नित्य किसी भी उपाय से अति आदरपूर्वक ऐसा करना चाहिए कि जैसे भाग्यवश से मिली बोधि की सफलता हो, क्योंकि प्राप्त हुई बोधि को सफल नहीं करते और भविष्य में पुनः इसकी इच्छा करते तूं दूसरे बोधि के दातारको किस मूल्य से प्राप्त करेगा? और मूढ़ पुरुष तो कभी देव के समान सुख को, कभी नरक के समान महादुःख को और कभी तिर्यंच आदि के भी, दाग देना, खसी करना इत्यादि विविध दुःख को अपनी आँखों से देखकर और किसी के दुःखों को परोपदेश से जानकर भी अमूल्य बोधि को स्वीकार नहीं करता है । जैसे बड़े नगर में मनुष्य गया हो और धन होते हुए भी मूढ़ता के कारण वहाँ का लाभ नहीं लेता, वैसे ही नर जन्म को प्राप्तकर भी मूढ़ता से बोधि को प्राप्त नहीं करता । तथा सत्य की परीक्षा को नहीं जानने वाला चिन्तामणी को फेंक देने वाले मूढात्मा के समान मूढ़ मनुष्य मुश्किल से मिली उत्तम बोधि को भी शीघ्र छोड़ देता है, और अन्य व्यापारियों को रत्न दे देने के बाद व्यापारी के पुत्र के समान पुनः उन रत्नों को प्राप्त नहीं कर सका, उस तरह बोधिज्ञान से भ्रष्ट हुआ पुनः खोज करने पर भी उसे प्राप्त नहीं कर सकता है ।।८८२२ । । इस विषय की कथा इस प्रकारःवणिक पुत्र की कथा महान् धनाढ्य से पूर्ण भरे हुए एक बड़े नगर में कलाओं में कुशल, उत्तम प्रशान्त वेषधारी, शिवदत्त नाम का सेठ रहता था। उसके पास ज्वर, भूत, पिशाच और शाकिनी आदि के उपद्रव को नाश करने वाले प्रगट प्रभाव से शोभित विविध रत्न थे। उन रत्नों को वह प्राण के समान अथवा महानिधान समान हमेशा रखता था, अपने पुत्र आदि को भी किसी तरह नहीं दिखाता था। एक समय उस नगर में एक उत्सव में जिनके पास जितना करोड़ धन था वह धनाढ्य उतनी चन्द्र समान उज्ज्वल ध्वजा (कोटि ध्वजा) अपने-अपने मकान के ऊपर चढ़ाने लगे। उसे देखकर उस सेठ के पुत्रों ने कहा कि - 'हे तात! रत्नों को बेच दो! धन नकद करो! इन रत्नों का क्या काम है? कोटि ध्वजाओं से अपना धन भी शोभायमान होता है' इससे रुष्ट हुए सेठ ने कहा कि- 'अरे! मेरे सामने फिर ऐसा कभी भी नहीं बोलना किसी तरह भी इन रत्नों को नहीं बेचूँगा । इस तरह पिता को निश्चल जानकर पुत्रों ने मौन धारण किया और विश्वस्त मन वाले सेठ भी एक समय कार्यवश अन्य गाँव में गया। फिर 367 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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