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________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-भावना पटल नामक चौदहवाँ द्वार-वणिक पुत्र की कथा पिता की अनुपस्थिति जानकर अन्य प्रयोजनों का विचार किये बिना पुत्रों ने दूर देश से आये व्यापारियों को वे रत्न बेच दिये। फिर उस बिक्री से प्राप्त हुए धन से अनेक करोड़ संख्या की शंख समान उज्ज्वल ध्वजापटों को घर के ऊपर चढ़ाया। फिर कुछ काल में सेठ आया और घर को देखकर सहसा विस्मय प्राप्त कर पुत्रों से पूछा कियह क्या है? उन्होंने सारा वृत्तान्त कहा, इससे अति गाढ़ क्रोध वाले सेठ ने अनेक कठोर शब्दों से बहुत समय तक उनका तिरस्कार किया और 'रत्नों को लेकर मेरे घर में आना' ऐसा कहकर जोर से गले से पकड़कर अपने घर में से निकाल दिया । फिर वे बिचारे बहुत काल तक भ्रमण करने पर भी दूर देशों में पहुँचे उन व्यापारियों के पास अपने असली रत्नों को पुनः किस तरह प्राप्त करें? अथवा किसी तरह देव आदि की सहायता से उनको वे रत्न मिल जाएँ, फिर भी नाश हुई अत्यन्त दुर्लभ बोधि पुनः प्राप्त नहीं होती है। और जब इस लोक, परलोक में सुख को प्राप्त करता है तब ही श्री जिन कथित धर्म को भाव से स्वीकार करता है। जैसे-जैसे दोष घटते हैं और जैसे-जैसे विषयों में वैराग्य उत्पन्न होता है, वैसे-वैसे जानना कि बोधि लाभ नजदीक है। दुर्गम संसार अटवी में चिरकाल से परिभ्रमण करते भूले हुए जीवों को इष्ट श्री जिन कथित सद्गति का मार्ग अति दुर्लभ है। मनुष्य जीवन मिलने पर भी मोह के उदय से कुमार्ग अनेक होने से और विषय सुख के लोभ से जीवों को मोक्ष मार्ग दुर्लभ है। इस कारण से महामूल्य वाले रत्नों के भंडार की प्राप्तितुल्य बोधिलाभ प्राप्त कर तुच्छ सुखों के लिए तूं उसे ही निष्फल मत गंवाना। इस प्रकार दुर्लभ भी बोधिलाभ मुश्किल से मिलने पर भी इस संसार में धर्माचार्य की प्राप्ति भी दुर्लभ है, इस कारण से तूं इसका भी विचार कर जैसे कि: (१२) धर्माचार्य दुर्लभ भावना :- जैसे जगत में रत्न का अर्थी और उसके दातार भी थोड़े होते हैं, वैसे शुद्ध धर्म के अर्थी और उसके दाता भी बहुत ही अल्प होते हैं। और यथोक्त साधुता होने पर शास्त्र कथित, कष, छेद आदि से विशुद्ध शुद्ध धर्म को देने वाले हैं वे गुरु सद्गुरु में गिने जाते हैं। इसलिए ही इन विशिष्ट दृष्टि वाले ज्ञानियों ने इस प्रमाण से सिद्ध अर्थ वाले को निश्चय से भाव साधु कहा है। इस प्रमाण से अनुमान प्रमाण की पद्धति से अपना कथन सिद्ध करते हैं कि 'शास्त्रोक्त गुण वाले वे साधु होते हैं दूसरे प्रतिज्ञा और गुण वाले नहीं होने से वे साधु नहीं होते हैं यह हेतु है।' सुवर्ण के समान यह दृष्टान्त है जैसे (१) विष घातक, (२) रसायण, (३) मंगल रूप, (४) विनीत, (५) प्रदक्षिणा वर्त, (६) भारी, (७) अदाह्य और (८) अकुत्सित ये आठ गुण सुवर्ण में होते हैं वैसे भाव साधु भी (१) मोहरूपी विष का घात करने वाले होते हैं, (२) मोक्ष का उपदेश करने से रसायण है, (३) गुणों से वह मंगल स्वरूप है, (४) मन, वचन, काया के योग से विनीत होते हैं, (५) मार्गानुसारी होने से प्रदक्षिणावर्त होते हैं, (६) गंभीर होने से गुरु रूप होते हैं, (७) क्रोध रूपी अग्नि से नहीं जलने वाले और, (८) शील वाले होने से सदा पवित्र होते हैं ।। ८८५० ।। इस तरह यहाँ सोने के गुण दृष्टांत से साधु में भी जान योग्य हैं, क्योंकि प्रायःकर समान धर्म के अभाव में पदार्थ दृष्टांत नहीं बनता है। जो कष, छेद, ताप और ताड़न इन चार क्रियाओं से विशुद्ध परीक्षित होता है वह सुवर्ण ऊपर कहे वह विष घातक, रसायण आदि युक्त होता है वैसे साधु में भी (१) विशुद्ध लेश्या वह कष है, (२) एक ही परमार्थ ध्येय का लक्ष्य वह छेद है, (३) अपकारी प्रति अनुकंपा वह ताप है और (४) संकट में भी अति निश्चल चित्तवाले वह ताड़ना जानना । जो समग्र गुणों युक्त हो वह सुवर्ण कहलाता है, वह मिलावट वाला कृत्रिम नहीं है। इस प्रकार साधु भी निर्गुणी केवल नाम से अथवा वेशमात्र से साधु नहीं है । और यदि कृत्रिम सोना सुवर्ण समान वर्ण वाला किया जाये फिर भी दूसरे गुणों से रहित होने से वह किसी तरह सुवर्ण नहीं बनता है। जैसे वर्ण के साथ में अन्य गुणों का समूह होने से जाति 368 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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