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________________ समाधि लाभ द्वार-पंच महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला समारंभ और प्राण नाश करना वह आरंभ है। ऐसा सर्व विशुद्ध नयों का मत है। अजीव हिंसा के निक्षेप, निवृत्ति, संयोजन और निसर्ग ये चार मूल भेद हैं उसके क्रमशः चार, दो, दो और तीन भेद से ग्यारह भेद होते हैं। उसमें १-अप्रमार्जना, २-दुष्प्रमार्जना, ३-सहसात्कार और ४-अनाभोग इस तरह निक्षेप के चार भेद होते हैं। काया से दुष्ट व्यापार करना और ऐसे हिंसक उपकरण बनाने इस तरह निवृत्ति के दो भेद हैं। उपकरणों का संयोजन और आहार, पानी का संयोजन इस तरह संयोजन के भी दो भेद होते हैं। और दुष्ट-उन्मार्ग में जाते मन, वचन और काया ये निसर्ग के तीन भेद हैं। जो हिंसा की अविरति रूपी वध का परिणाम हिंसा है, इस कारण से प्रमत्त योग वही नित्य प्राण घातक हिंसा है। अधिक कषायी होने से जीव जीवों का घात करता है, अतः जो कषायों को जीतता है वह वास्तविक में जीववध का त्याग करता है। लेने में, रखने में, त्याग करने में, खड़े रहने में या बैठने में, चलने में और सोने आदि में सर्वत्र अप्रमत्त और दयालु जीव में निश्चय अहिंसा होती है। इसलिए छह काय जीवों का अनारंभी, सम्यग्ज्ञान में प्रीति परायण मन वाला और सर्वत्र उपयोग में तत्पर जीव में निश्चय संपूर्ण अहिंसा होती है। इसी कारण से ही आरंभ में रक्त, दोषित आदि पिण्ड को भोगने वाला, घरवास का रागी, शाता, रस और ऋद्धि इन तीन गारव में आसक्ति वाला, स्वच्छंदी, गाँव कुल आदि में ममत्व रखनेवाला और अज्ञानी जीवों में गधे के मस्तक पर जैसे सींग नहीं होते वैसे उसमें अहिंसा नहीं होती है। अतः ज्ञानदान, दीक्षा, दुष्कर तप, त्याग, सद्गुरु की सेवा एवं योगाभ्यास इन सबका सार एक ही अहिंसा है। हिंसक को परलोक में अल्पायुष्य, अनारोग्य, दुर्भाग्य दुष्ट-खराब रूप, दरिद्रता और अशुभ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श का योग होता है। इसलिए इस लोक-परलोक में दुःख को नहीं चाहने वाले मुनि को सदा जीव दया में उपयोग रखना चाहिए। जो कोई भी प्रशस्त, सुख, प्रभुता और स्वभाव से सुंदर आरोग्य, सौभाग्य आदि प्राप्त करता है वह सब उस अहिंसा का फल (२) असत्य त्याग व्रत :- हे क्षपक मुनि! चार प्रकार के असत्य वचन का प्रयत्नपूर्वक त्याग कर। क्योंकि संयम वालों को भी भाषा दोष से कर्म का बंध होता है। सद्भूत पदार्थों का निषेध करना, जैसे कि-जीव नहीं है, वह प्रथम असत्य है, दूसरा असत्य असद्भूत कथन करना, जैसे कि-जीव पाँच भूत से बना है और कुछ भी नहीं है। तीसरा असत्य वचन जैसे जीव को एकांत नित्य अथवा अनित्य मानना। चौथा असत्य अनेक प्रकार के सावध वचन बोलना, जिससे हिंसादि दोषों का सेवन होता है तथा अप्रिय वचन या कर्कश, चुगली, निंदा आदि के वचन वह यहाँ सावध वचन कहलाते हैं। अथवा हास्य से, क्रोध से, लोभ से अथवा भय से इस तरह चार प्रकार का असत्य वचन तुझे नहीं बोलना चाहिए। जीवों को हितकर, प्रशस्त सत्य वचन बोलना चाहिए। जो मित, मधुर, अकर्कश, अनिष्ठुर, छल रहित, निर्दोष, कार्यकर, सावध रहित और धर्मी-अधर्मी दोनों को सुखकर हो वैसा ही बोलना चाहिए। ऋषि सत्य बोलते हैं, ऋषिओं ने सिद्ध की हुइ सर्व विद्याएँ म्लेच्छ सत्यवादी को भी अवश्य सिद्ध होती है। सत्यवादी पुरुष लोगों को माता के समान विश्वसनीय, गुरु के समान पूज्य और स्वजन के समान प्रिय होता है। सत्य में तप, सत्य में संयम और उसमें ही सर्व गुण रहे हैं। जगत में संयमी पुरुष भी मृषावाद से तृण के समान तुच्छ बनता है। सत्य वादी पुरुष को अग्नि जलाती नहीं, पानी डूबाता नहीं और सत्य के बल वाले सत्पुरुष को तीक्ष्ण पर्वत की नदी भी खींचकर नहीं ले जाती। सत्य से पुरुष को देवता भी नमस्कार करते हैं और सदा वश में रहते हैं, सत्य से ग्रह की दशा अथवा पागलपन भी खत्म हो जाता है और देवों द्वारा रक्षण होता है। लोगों के बीच निर्दोष सत्य बोलकर मनुष्य परम प्रीति को प्राप्त करता है और जगत् प्रसिद्ध यश को प्राप्त करता है। एक असत्य से भी पुरुष माता को भी द्वेष पात्र बनता है, तो फिर दूसरो 331 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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