________________
श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार-पंच महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार
को वह सर्प के समान अति द्वेष पात्र कैसे नहीं बनता? वह अवश्य दूसरों का द्वेष पात्र बनता है। असत्यवादी को अविश्वास, अपकीर्ति, धिक्कार, कलह, वैर, भय, शोक, धन का नाश और वध बंधन समीपवर्ती ही होते है। मृषावादी को दूसरे जन्म में प्रयत्नपूर्वक मृषावाद का त्याग करने पर भी इस जन्म के इन दोषों के कारण चोरी आदि अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। मृषा वचन से इस लोक और परलोक के जो दोष होते हैं वही दोष कर्कश वचन आदि वचन बोलने के कारण भी लगते हैं, असत्य बोलने वाले को पूर्व में कहे अनेक दोष प्राप्त होते हैं और उसका त्याग करने से उस दोष से विपरीत गुणों को प्राप्त करता है।
(३) अदत्तादान त्याग व्रत :- हे धीरपुरुष! दूसरे के द्वारा दिये बिना अल्प अथवा बहुत परधन लेने की या दाँत साफ करने का दंत शोधन हेतु सली मात्र भी लेने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। जैसे चारों तरफ से घिरा हुआ भी बंदर पक्के फलों को खाने के लिए दौड़ता है, वैसे जीव विविध परधन को देखकर लेने की अभिलाषा करता है। उसे ले नहीं सकता है, लेने पर भी उसे भोग नहीं सकता है और भोगने पर भी उसके मन की तृप्ति नहीं होती है, इस तरह लोभी जीव सारे जगत से भी तृप्त नहीं होता है। तथा जो जिसके धन की चोरी करता है, वह उसके जीवन का भी हरण करता है। क्योंकि धन के लिए वह प्राण का त्याग करता है, परंतु धन को नहीं छोड़ता। धन होने पर वह जीता रहता है और उससे स्त्री सहित स्वयं सुख को प्राप्त करता है, उसके उस धन का हरण करने से उसका सारा हरण किया है। इसलिए जीव दया रूपी परम धर्म को प्राप्तकर श्री जिनेश्वर और गणधरों के द्वारा निषेध किया हुआ लोक विरुद्ध और अधम अदत्त को ग्रहण नहीं करना चाहिए। दीर्घकाल चारित्र की आराधनाकर भी केवल एक सली भी अदत्त ग्रहण करने वाला मनुष्य तृण समान हल्का और चोर के समान अविश्वसनीय बन जाता है। चोर वध बंधन की पीड़ाएँ, यशकीर्ति का नाश, परभव का शोक और स्वयं सर्वस्व का नाश करने वाले मृत्यु को प्राप्त करता है। तथा हमेशा दिन और रात्री में शंका करते भयभीत होता, निद्रा को प्राप्त नहीं करता, वह हिरण के समान भय से कांपते सर्वत्र देखता है और भागता फिरता है। चूहे द्वारा अल्प आवाज को सुनकर चोर सहसा सर्व अंगों से काँपता है और उद्विग्न बना हुआ गिरते चारों तरफ दृष्टि करता है। परलोक में भी चोर अपना स्थान नरक का बनाता है-उसमें जाता है और वहाँ अति चिरकाल तक तीव्र वेदनाओं को भोगता है। तथा चोर तिर्यंच गति में भी कठोर दुःखों को भोगता है। अधिक क्या कहें? दुस्तर संसार सरोवर में बार-बार परिभ्रमण करता है। मनुष्य जन्म में भी उसका धन, माल आदि चोरी वाला और उसके साथ चोरी बिना का भी नाश होता है, उसके धन की वृद्धि नहीं होती है और स्वयं धन से दूर रहता है। परधन हरण करने की बुद्धि वाला श्रीभूति दुःख से भयंकर नरक में गिरा और वहाँ से अनंत काल तक संसार अटवी में भ्रमण किया। ये सारे दोष परधन हरण की विरति वाले को नहीं होते और समग्र गुण उत्पन्न होते हैं। इसलिए ही हमेशा उपयोगवाले तूं देवेन्द्र, राजा, गाथापति, गृहस्थ और साधर्मिक, इस तरह पंचविध-अवग्रह में उचित विधिपूर्वक अवग्रह (वसति) को साधु जीवन के लिए आवश्यक होने से ग्रहण कर।।७७६० ।।
(४) ब्रह्मचर्य व्रत :- पाँच प्रकार के स्त्री के वैराग्य में नित्यमेव अप्रमत्त रहनेवाला तूं नौ प्रकार के ब्रह्म गुप्ति से विशुद्ध ऐसे ब्रह्मचर्य का रक्षण कर। जीव यह ब्रह्म है, इसलिए परदेह की चिंता से रहित साधु की प्रवृत्ति जो जीव में (ब्रह्म में) ही होती है, उसे ब्रह्मचर्य जानना। वसति शुद्धि, सराग कथा त्याग. आसन त्याग. अंगोपांगादि इन्द्रियों को रागपूर्वक देखने का त्याग, दीवार, पर्दे के पास खड़े होकर स्त्री विकार शब्दादि सुनना आदि का त्याग, पूर्व क्रीड़ा स्मरण का त्याग, प्रणीत भोजन त्याग, अति मात्रा के आहार का त्याग और विभूषा का त्याग, ये नौ ब्रह्मचर्य की गुप्ति (रक्षण की वाड) हैं। १. विषय भोग जन्य दोष, २. स्त्री के माया-मृषादि दोष, ३. भोग का
332 Jain Educatoffinternational
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org