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________________ समाधि लाभ द्वार-पंच महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला अशुचित्व, ४. वृद्ध की सेवा और ५. संसर्गजन्य दोष भी स्त्रियों के प्रति वैराग्य प्रकट करता है। जैसे कि मनुष्य को इस जन्म और पर-जन्म में जितने दुःख के कारणभूत दोष हैं, उन सब दोषों को मैथुन संज्ञा धारण करता है, अर्थात् उसमें से मैथुन संज्ञा उत्पन्न होती है। काम से पीड़ित मनुष्य शोक करता है, कंपता है, चिंता करता है और असंबध बोलता है। शून्य चित्तवाला वह दिन, रात सोता नहीं है और हमेशा अशुभ ध्यान करता है। कामरूपी पिशाच से घिरा हुआ स्वजनों में अथवा अन्य लोग में शयन, आसन, घर, गाँव, अरण्य तथा भोजन आदि में रति नहीं होती है। कामातुर मनुष्य को क्षण भर भी एक वर्ष जैसा लगता है, अंग शिथिल हो जाते हैं और इष्ट की प्राप्ति के लिए मन में उत्कंठा को धारण करता है। काम से उन्मादी बना हुआ, दीन मुख वाला वह कनपटी पर हाथ रखकर हृदय में बार-बार कुछ भी चिंतन करते रहता है और उस चिंतन से हृदय में जलता है और भाग्ययोग के विपरीतपने से जब इच्छित प्राप्ति नहीं होती है, तब निरर्थक वह अपने आपको पर्वत, पानी या अग्नि द्वारा आपघात करता है। अरति और रति रूप दो चपल जीभवाला, संकल्प रूप विकराल फणा वाला, विषय रूपी बील में रहनेवाला, मद रूपी सुख वाला या मुंहवाला, काम विकार रूपी रोष वाला, विलास रूपी कंचुक और दर्परूपी दाढ़वाला, ऐसे कामरूपी सर्प से डसे हुए मानव दुस्सह दुःख रूपी उत्कट जहर से विवश होकर उनका नाश होता है। अति भयंकर आशीविष सर्प के डंख लगाने से मनुष्य को सात ही वेग (विकार) होते हैं, परंतु कामरूपी सर्प से डंख लगने पर अति दुष्ट परिणाम वाला दस प्रकार के वेग की काम की अवस्थाएँ हो हैं। प्रथम वेग में चिंता करता है, दूसरे वेग में देखने की इच्छा होती है, तीसरे वेग में निःश्वास छोड़ता है, चौथे वेग में ज्वर चढ़ता है, पाँचवें वेग में शरीर के अंदर दाह उत्पन्न होता है, छट्ठे वेग में भोजन की अरुचि होना, सातवें वेग में मूर्च्छित होना, आठवें वेग में उन्मादी होना, नौवें वेग में 'कुछ भी नहीं' इस तरह बेहोशी हो जाती है, और दसवें वेग में अवश्य प्राण मुक्त होता है, उसमें भी तीव्र मन्दादि संकल्प के आश्रित वे वेग तीव्र मंद होते हैं। सूर्य का ताप दिन को जलाता है, जब काम का ताप रात दिन जलाता है। सूर्य के, अग्नि के ताप में आच्छादन छत्र आदि होते हैं किंतु काम के ताप का आच्छादन कुछ भी नहीं है। सूर्य का ताप जल सिंचन आदि से शांत हो जाता है, जबकि कामाग्नि शांत नहीं होती है। सूर्य का ताप चमड़ी को जलाता है जबकि कामाग्नि बाहर और अंदर की धातुओं को भी जलाती है। काम पिशाच के वश बना अपना हित अथवा अहित को जानता नहीं है जब काम से जलते मनुष्य हित करनेवाले को भी शत्रु के समान देखता है। काम ग्रस्त मूढ़ पुरुष त्रिलोक के सारभूत श्रुतरत्न का भी त्याग करता है और तीन जगत से पूजित उस श्रुत की भी महिमा को निश्चय रूप में नहीं मानता है। श्री जिनेश्वर कथित और स्वयं जानने योग्य तीन लोक के पूज्य तप, ज्ञान, चारित्र, दर्शन रूपी श्रेष्ठ गुणों को भी वह तृण समान मानता है । संसारजन्य भय दुःख का भी विचार नहीं करते निर्भागी कामी पुरुष, श्री अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, वाचक और साधु वर्ग की अवज्ञा करता है। शुद्ध मनुष्य विषय रूपी आमिष में इस जन्म में होने वाले अपयश, अनर्थ और दुःख को तथा परलोक में दुर्गति और अनंत संसार को भी नहीं गिनता है, वह नरक की भयंकर वेदनाएँ और घोर संसार समुद्र के आवेग के आधीन हो जाता है, परंतु काम सुख की तुच्छता को नहीं देख सकता है, उच्च कुल में जन्मा हुआ भी विषय वश गाता है, नाचता है और पैर से दौड़ता है। भोग से अंगों को मलिन करता है और दूसरी ओर मलमूत्र की शुद्धि करता है। काम के सैंकड़ों बाणों से भेदित कामी जैसे राजपत्नी में आसक्त वणिक पुत्र दुर्गंध वाले गुदे धोने के घर - विष्ठा की गटर में अनेक बार 1. वृद्ध की सेवा अर्थात् स्त्री काम वश होकर वृद्ध पुरुष से भी क्रीडा करती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only 333 www.jainelibrary.org.
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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