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________________ ममत्व विच्छेदन द्वार-क्षमापना नामक आठवाँ द्वार स्वयं क्षामणा नामक नौवाँ द्वार उद्यान के समान संवेगरंगशाला नाम का सातवाँ अंतर द्वार कहा। अब पच्चक्खाण करने पर भी क्षमापना बिना क्षपक मुनि की सद्गति नहीं होती, इसलिए क्षमापना द्वार को कहते हैं ।। ५४७९ ।। क्षमापना नामक आठवाँ द्वार : पच्चक्खाण करने बाद निर्यामक आचार्य मधुर शब्दों से क्षपक मुनि को कहे कि - हे देवानुप्रिय ! पिता तुल्य, बंधु तुल्य अथवा मित्र तुल्य इस तरह अनेक गुणों के समूह रूप यह श्री संघ अथवा जो तीन लोक को वंदनीय है ऐसे तीर्थंकर परमात्मा भी 'नमो तित्थस्स' ऐसा कहकर नमस्कार करते हैं। वह अनेक जन्मों की परंपरा से प्रकट हुआ दुष्कृत्य रूपी अंधकार के समूह को नाश करने में सूर्य समान महाभाग श्री संघ उपकार करने यहाँ आया है, इसलिए भक्ति पूर्ण मन वाले तूं इस भगवंत श्री संघ को पूर्व कालीन आशातनाओं के समूह का त्यागकर पूर्ण आदरपूर्वक क्षमा याचना कर । फिर वह क्षपक मुनि भक्ति के भार से नमा हुआ अपने मस्तक पर दोनों हाथ से सम्यग् अंजलि करके 'आपकी शिक्षा को मैं चाहता हूँ, आपने मुझे श्रेष्ठ शिक्षा दी है।' इस तरह गुरुदेव के वचन की प्रशंसा करता त्रिकरण शुद्धि से नमस्कार करके अन्य को भी संवेग प्रकट करते सर्व संघ से इस तरह क्षमा याचना करता है - हे भगवंत ! हे भट्टारक! हे गुणरत्नों के समुद्र ! हे श्री श्रमण संघ ! आपके कारण मैंने जो कुछ सूक्ष्म या बादर पापानुबंधी पाप इस जन्म में अथवा अन्य जन्मों में मन से चिंतन किया हो, वचन से बोला हो अथवा काया से किया हो, अथवा मन, वचन, काया से यदि किया हो, करवाया हो या अनुमोदन किया हो, उन सब पाप को वर्तमान में मैं त्रिविध-त्रिविध सम्यक् खमाता हूँ। आपको नमस्कार हो ! आपको नमस्कार हो! बार- बार भी भाव से आपको नमस्कार हो ! निश्चय ही पैरों में गिरा हुआ मैं आपको बारबार खमाता हूँ। भगवंत श्री संघ मुझ दीन पर दया करके क्षमा करें! और निर्विघ्न आराधना के लिए आशिष देने के लिए तत्पर बनें। आपको खमाने से इस जगत में ऐसा कोई नहीं है कि जिसको मैंने खमाया न हो, क्योंकिआप निश्चय समग्र जीव लोक के माता-पिता तुल्य है, इससे आपको खमाने से विश्व के साथ क्षमा याचना होती है। आचार्य, उपाध्याय, शिष्य साधर्मिक कुल और गण के प्रति भी मैंने जो कोई कषाय, मन, वचन और काया से पूर्व में किया हो तथा करवाया हो और अनुमोदन किया हो उन सबको त्रिविध-त्रिविध खमाता हूँ तथा उनके विषय में भी सर्व अपराध को मैं खमाता हूँ। शत्रु-मित्र प्रति समचित्त वाले और सर्व जीवों के प्रति करुणा रस के एक समुद्र, श्रमण भगवंत भी अनुकंपा पात्र मुझे क्षमा करें। इस तरह सम्यक् संवेगी मन वाला वह बाल, वृद्ध सहित सर्व श्री संघ को और फिर पूर्व में जिसके साथ विरोध हुआ हो उनसे सविशेष क्षमा याचना करें। जैसे किप्रमाद से पूर्व में जो कोई भी मैंने आपके प्रति सद्वर्तन आदि नहीं किया हो, उन सबको वर्तमान में शल्य और कषाय से रहित मैं खमाता हूँ। इस तरह समता रूपी समुद्र को विकसाने में चंद्र समान और संवेग मनरूपी भ्रमर के लिए विकासी पुष्पों के उद्यान सदृश संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अंतर द्वार वाले तीसरे ममत्व विच्छेद द्वार में आठवाँ क्षमापना नाम का अंतर द्वार कहा । अब क्षमा याचना योग्य वर्ग द्वारा क्षमा याचना करने पर स्वयं क्षमा न करे, तो वांछित सिद्धि नहीं होती, इसलिए स्वयं का क्षामणा द्वार कहता हूँ । स्वयं क्षामणा नामक नौवाँ द्वार : सद्भावपूर्वक 'मिच्छामि दुक्कडं' देने आदि से जो कषाय को जीतना उसको यहाँ परमार्थ से श्रेष्ठ क्षमापना 235 www.jainelibrary.org Jain Education International श्री संवेगरंगशाला For Personal & Private Use Only
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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