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________________ श्री संवेगरंगशाला ममत्व विच्छेदन द्वार-चंडरुद्राचार्य की कथा कहा है ।।५५०० ।। क्योंकि-पूर्व में तीव्र रस वाले, दीर्घ स्थिति वाले कठोर कर्मों का बंध किया हो, उसका नाश इस क्षमापना से ही होता है। निर्यामक आचार्य के पास से सम्यक् प्रकार से सुनकर संवेग को धारण करते क्षपक मुनि पुनः इस प्रकार कहे-मैं सर्व अपराधों को खमाता हूँ, भगवंत श्री संघ मुझे क्षमा करें, मैं भी मन, वचन, काया से शुद्ध होकर गुण के भंडार श्री संघ को क्षमा करता हूँ। दूसरे को ज्ञात हो या अज्ञात हो सारे अपराध स्थानों को निश्चय यह त्रिकरण अति विशुद्ध आत्मा मैं सम्यग रूप में खमाता हैं। दूसरे मुझे जानते हों अथवा नहीं जानते हों, दूसरे मुझे खमाएँ अथवा नहीं खमाएँ तो भी त्रिविध शल्य रहित मैं स्वयं खमाता हूँ। इसलिए यदि सामने वाला भी क्षमा याचना करें, तो उभय पक्ष में श्रेष्ठ होता है और अत्यंत अभिमान युक्त, सामने वाला व्यक्ति क्षमा याचना नहीं कर सकता है तो भी अहंकार के स्थान से वह तो मुक्त है। इस तरह विकास करते प्रशम के प्रकर्ष के ऊपर चढ़ते अति विशुद्ध तीनों करण के समूह वाला समता में तल्लीन रहते क्षमा नहीं करने वाले को भी सामने वाले को सम्यक् क्षमापना करने में तत्पर यह मैं निश्चय स्वयं खमाता हूँ, क्योंकि-मेरा यह काल क्षमा याचना का है। मैं सर्व जीवों को खमाता हूँ और वे सर्व भी मुझे क्षमा करें। मैं सर्व जीवों के प्रति वैर मुक्त होकर मैत्री भाव में तत्पर हूँ। इस तरह अन्य को क्षमा याचना करता स्वयं भी क्षमा करते विशुद्ध मन वाला जीव श्री चंडरुद्रसूरि के समान तत्काल कर्मक्षय करता है। उसकी कथा इस प्रकार है :- ।।५५१०।। चंडरुद्राचार्य की कथा उज्जैन नगर में गीतार्थ और पाप का त्याग करने में तत्पर चंडरुद्र नाम के प्रसिद्ध आचार्य थे। एवं वे स्वभाव से ही प्रचंड क्रोधी होने से मुनियों के बीच बैठने में असमर्थ थें, इससे अन्य साधुओं से रहित स्थान में स्वाध्याय ध्यान में तत्पर बनकर प्रयत्नपूर्वक अपने उपशम भाव से अत्यंत तन्मय करते गच्छ की निश्रा में रहते थे। एक समय क्रीड़ा करने का प्रेमी प्रिय मित्रों से युक्त नयी शादी वाला श्रृंगार से युक्त एक धनवान का पुत्र तीन मार्ग वाले चौक में, चोहटे में, तथा चार मार्ग वाले चौक आदि में सर्वत्र फिरते हुए वहाँ आया और हँसी पूर्वक उन साधुओं को नमस्कार करके उनके चरणों के पास बैठा। उसके बाद उसके मित्रों ने मजाक से कहा कि-हे भगवंत! संसार वास से अत्यंत उद्विग्न बना हुआ यह हमारा मित्र दीक्षा लेने की इच्छा रखता है, इसलिए ही श्रेष्ठ श्रृंगार करके यहाँ आया है इसलिए आप इसे दीक्षा दो। उसके भाव जानने में कुशल मुनियों ने उनकी मजाक जानकर अनजान के समान कुछ भी उत्तर दिये बिना अपने कार्यों को करने लगे। फिर भी बार-बार बोलने लगे जब वे चिरकाल तक बोलते रुके नहीं तब 'ये दुर्शिक्षा वाले भले शिक्षा को प्राप्त करें' ऐसा विचारकर साधुओं ने कहा- 'एकान्त में हमारे गुरुदेव चंडरुद्राचार्य बैठे हैं वे दीक्षा देंगे।' ऐसा कहकर उन्होंने गुरु का स्थान बतलाया। फिर कतहल प्रिय प्रकृति वाले वे वहाँ से आचार्य श्री के पास गये और पर्व के समान सेठ के पत्र ने दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की। इससे 'अरे रे! मेरे साथ भी ये पापी यहाँ कैसी हँसी करते हैं?' ऐसा विचार करते आचार्य श्री को अतीव क्रोध चढ़ा और कहा कि-अहो! यदि ऐसा है तो मुझे जल्दी राख दो। और उसके मित्रों ने शीघ्र ही कहीं से राख लाकर दी। फिर आचार्य श्री ने उस सेठ के पुत्र को मजबूत पकड़कर श्री नमस्कार महामंत्र सुनाकर अपने हाथ से लोच करने लगे। भवितव्यतावश जब उसके मित्रों ने तथा उस सेठ के पुत्र ने कुछ भी नहीं कहा, तब उन्होंने मस्तक का पूरा लोच कर दिया। लोच होने के बाद सेठ के पूत्र ने कहा कि-भगवंत! इतने समय तक तो मजाक थी, परंतु अब सद्भाव प्रकट हुआ है, इसलिए कृपा करो और संसार समुद्र तरने में सर्वश्रेष्ठ नाव समान और मोक्ष नगर के सुख को देने वाली तथा जगत् गुरु श्री जिनेश्वर देवों के द्वारा कथित दीक्षा को भावपूर्वक दो। ऐसा कहने से उस आचार्य ने 236 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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