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ममत्व विच्छेदन द्वार-चंडरुद्राचार्य की कथा
श्री संवेगरंगशाला उसे दीक्षा दी और दुःखी होते मित्र अपने-अपने स्थान पर चले गये। फिर उसने कहा कि-हे भगवंत! यहाँ मेरे बहुत स्वजन हैं, इसलिए मैं यहाँ निर्विघ्न धर्म की आराधना नहीं कर सकता हूँ, अतः दूसरे गाँव में जाना चाहिए। गरुजी ने स्वीकार किया. और उसे मार्ग देखने के लिए भेजा. वह मार्ग देखकर आया। फिर वद्धावस्था के कारण कांपते हुए उस आचार्य ने उसके कंधे के ऊपर दाहिना हाथ रखकर धीरे-धीरे चलना प्रारंभ किया। रात्री के अंदर मार्ग में चक्षु बल से रहित उनको थोड़ी भी पैर की स्खलना होते ही क्रोधातुर हो जाते, नये साधु को बार-बार कठोर तिरस्कार करते थे और 'यह तूंने ऐसा मार्ग देखा है?' इस तरह बार-बार वचन बोलते दण्ड से मस्तक पर प्रहार करते थे। तब नव दीक्षित होने पर भी वह चिंतन करता है कि-अहो! महापाप के भाजन मैंने इस महात्मा को ऐसे दुःख समुद्र में डाला है? एक मैं ही शिष्य के बहाने धर्म के भण्डार इस गुरुदेव का प्रत्यनीक (शत्रु) बना हूँ। धिक्कार हो! धिक्कार हो! मेरे दुराचरण को। इस तरह अपनी निंदा करते-करते उसे ऐसी कोई अपूर्व श्रेष्ठ भावना प्रकट हुई कि जिससे उसमें निर्मल केवल ज्ञान का प्रकाश प्रकट हुआ। उसके बाद निर्मल केवल ज्ञान रूप दीपक से तीन जगत का विस्तार प्रकट रूप में दिखने लगा, वह शिष्य सम्यग् रूप में चलने लगा, इससे गुरुजी के पैरों की स्खलना नहीं हुई। इस तरह चलते जब प्रभात हुआ तब दण्ड के प्रहार से मस्तक पर से खून निकले हुए शिष्य को देखकर चंडरुद्रसूरि ने विचार किया कि-अहो! प्रथम दिन का दीक्षित नये मुनि की ऐसी क्षमा है? और चिरदीक्षित होने पर भी मेरा ऐसा आचरण है? क्षमा गुण से रहित मेरे विवेक को धिक्कार हो! निष्फल मेरी श्रुत संपत्ति को धिक्कार हो। मेरे आचार्य पद को भी धिक्कार हो! इस तरह संवेग प्राप्त करते श्रेष्ठ भक्ति से उस शिष्य को खमाते उन्होंने ऐसे श्रेष्ठ ध्यान को प्राप्त किया कि जिस ध्यान से वे केवली बनें।
इस तरह क्षमा याचना से और क्षमा करने से जीव पाप समूह का अत्यंत नाश करता है, इसलिए यह क्षमा करने योग्य है। इस तरह अन्य के अपराध को खमाने में तत्पर क्षपक सर्वश्रेष्ठ तप समाधि में प्रवृत्ति करते अनेक जन्मों तक पीड़ा वाले कर्म को तोड़ते विचरण करता है वह इस प्रकार :
तीव्र महामिथ्यात्व की वासना से व्याप्त और चिरकाल तक पापों को करने में अति समर्थ अठारह पाप स्थानक का आचरण करने वाला प्रमाद रूपी महामद से उन्मत्त अथवा कषाय से कलुषित जीव ने पूर्व में दुर्गति की प्राप्ति करने में समर्थ जो कुछ भी पाप बंध किया हो उसे शुद्ध भावना रूपी पवन से उत्तेजित की हुई तपस्या रूपी अग्नि की ज्वालाओं से क्षपक तपस्वी मुनि सूखे बड़ वृक्षों के समूह के समान क्षणभर में जला देता है। इस तरह विघ्नों के समूह का सम्यग् घात करने वाला श्री श्रमण संघ आदि सर्व जीवों को खमाने में तत्पर रहता है
और स्वयं भी श्री संघ आदि सर्व जीवों को क्षमा देने वाला इसलोक-परलोक के बाह्य सुख, निदान अभिलाषा रहित, जीवन मरण में समान वृत्ति वाला चंदन के समान अपकारी-उपकारी और मान-अपमान में समभाव वाला क्षपक मुनि अपने आत्मा को सर्व गुणों से युक्त निर्यामक को सौंपकर उनका शरण स्वीकार करके संथारा में बैठा हुआ सर्वथा उत्सुकता रहित काल व्यतीत करें। इस तरह परिकर्म करते हुए अन्य गण में रहा हुआ ममता को छेदन करके मोक्ष को चाहने वाला क्षपक मुनि समाधि मरण की प्राप्ति के लिए उद्यम करें।
इस तरह श्री जिनचंद्रसूरिजी रचित संवेगी मनरूपी भ्रमर के लिए खिले हुए पुष्पों के उद्यान समान संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अंतर द्वार वाले तीसरे ममत्व विच्छेद द्वार में नौवाँ खामणा नाम का अंतरद्वार कहा। और इसे कहने से मूल चार द्वार का यह ममत्व विच्छेद नाम का तीसरा द्वार संपूर्ण हुआ है।
इस तरह संवेगरंगशाला नामक आराधना का नौ अंतर द्वार से रचा हुआ ममत्व विच्छेद नामक तीसरा मूल द्वार यहाँ समाप्त हुआ। इस तरह ५५५४ गाथाएँ पूर्ण हुई। ॥ इति श्री संवेगरंगशाला तृतीय द्वार ।।
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