SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म विधि द्वार-गंगदत्त की कथा कहा कि - पुत्र ! निरर्थक शोक करना छोड़ दो और करने योग्य कार्य को करो! अनेक जन्मों की परंपरा से बंधन किये पापों का यह फैलाव है, तत्त्व से इस विषय में कोई दोष नहीं है। इसलिए हे पुत्र ! चलो, सुना है कि यहाँ पर भगवान श्री गुणसागर सूरिजी पधारे हैं, वहाँ जाकर और ज्ञान के रत्नों के भंडार रूप उनको नमस्कार करें। उसने वह स्वीकार किया। दोनों जन आचार्य भगवंत के पास गये और विनयपूर्वक उनको नमस्कारकर नजदीक में जमीन पर बैठे। आचार्यश्री ने भी दिव्य ज्ञान के उपयोग से जानने योग्य सर्व जानकर आक्षेपणी - विक्षेपणी स्वरूप धर्म कथा कहने लगे। फिर समय देखकर गंगदत्त ने आचार्य श्री से पूछा कि - भगवंत मैंने पूर्व जन्म में दुर्भाग्यजनक कौन सा कर्म किया है कि जिससे इस भव में स्त्रियों का अतिद्वेषी बना हूँ? उसका ऐसा प्रश्न पूछने पर आचार्य देव ने कहा कि - तुम अपना पूर्व भव सुनों : मैं ।। ४१२८।। पूर्व में शतद्वार नगर में श्री शेखर राजा की तूं अति प्रिय काम में अति आसक्त रानी थी। उस राजा के अतिशय रूप लावण्य से मनोहर अंगवाली पूर्ण पाँच सौ रानियाँ थीं। राजा के साथ निर्विघ्न यथेच्छ भोग की इच्छा होने से उन रानियों पर द्वेष करती थी और अनेक कूट, मंत्र, तंत्रों से उन पाँच सौ को मार दिया। इससे वज्र समान अति दारुण अनेक पाप समूह को तथा उस निमित्त से अत्यंत कठिन दुर्भाग्य नाम कर्म को उपार्जन किया। फिर अंतकाल तक अति दुःसह श्वास आदि अनेक प्रबल रोगों से मरकर नरक तिर्यंच गतियों में अनेक बार दुःखों को भोगकर एवं फिर महामुसीबत से कर्म की लघुता होने से यहाँ मनुष्य भव प्राप्त किया है और पूर्व में किये हुए पापकर्म के दोष से वर्तमान में तूं दुर्भाग्य का अनुभव कर रहा है। यह सुनकर धर्म श्रद्धावान बना, संसार से उद्वेग प्राप्त किया और पिता को पूछकर दीक्षा स्वीकार की । गुरुकुल वास में रहकर सूत्र अर्थ के चिंतन में उद्यमशील बना और वायु के समान प्रतिबंध रहित वह गाँव, नगरादि में विचरने लगा। कुछ काल तक निरतिचार संयम की आराधनाकर, फिर भक्त - परिज्ञा रूप चार आहार के त्याग द्वारा वह अनशन करने में उद्यत ना | तब स्थविरों ने कहा कि अहो महाभाग ! पुष्ट रुधिर-मांस वाले तुझे इस समय यह अनशन करना अनुचित है । अतः चार वर्ष विचित्र तप, चार वर्ष विगईयों का त्याग इत्यादि क्रम से संलेखना करनी चाहिए। द्रव्य, भाव की संलेखना करके फिर इच्छित प्रयोजन आचरण करना, अन्यथा विस्त्रोतसिका दुर्ध्यानादि भी होता है क्योंकि ज्ञानियों ने इस अनशन को बहुत विघ्न वाला कहा है। इस तरह उसे बहुत समझाया, तो भी उनकी वाणी का अपमान करके और स्वच्छन्दी रूप में उसने अनशन स्वीकार किया और पर्वत की शिला पर बैठा । फिर उस ध्यान में रहे दुष्ट योगों का निरोध करते और अनशन में रहे भी उसे क्या हुआ वह अब सुनो : तमाल के गुच्छे के समान अति मनोहर केश कलाप से शोभित, शरद पूर्णिमा के चंद्र समान मुख की कांति से दिशाओं को भी उज्ज्वल करती, निर्मल किरणों वाली मोती के हार से शोभती, स्थूल स्तनों वाली, अति श्रेष्ठ लगे हुए सुंदर मणियों के कंदोरे से शोभित कमर वाली, केले के वृक्ष के समान, अनुक्रम से स्थूल गोलाकार और मनोहर देदीप्यमान दो जंघा वाली, पैर में पहनी हुई कोमल झनझनाहट करती घुंघरुओं से रमणीय, अत्यंत विचित्र, महामूल्य के श्रेष्ठ दुकूल वस्त्रों से सज्ज और कल्पवृक्ष के पुष्पों की सुगंध से आये हुए भौरों की श्रेणियों से श्याम दिखती ऐसी सुंदर मनोहर अनेक युवतियों से घिरा हुआ अनंगकेतु नामक अति प्रसिद्ध विद्याधर राजा का पुत्र शाश्वत चैत्यों की यात्रा करके अपने घर की ओर जाते मुनि को अनशन में स्थित जानकर वहाँ जमीन पर उतरा। फिर अति विशाल भक्ति के समूह से प्रकट हुआ रोमांचित वाले उसने गंगदत्त मुनि की दीर्घकाल तक स्तुति करके स्त्रियों के साथ अपने नगर में गया। साधु गंगदत्त का मन स्त्रियों के मन को हरण करने में समर्थ उस विद्याधर का श्रेष्ठ सौभाग्य देखकर चलायमान हो गया और इस प्रकार विचार करने लगा कि - यह महात्मा स्त्रियों के समूह से घिरा हुआ इस तरह लीला करता है, और पापकर्मी मैंने तो इस काल में स्त्रियों से इस तरह पराभव 176 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy