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परिकर्म विधि द्वार-गंगदत्त की कथा
'श्री संवेगरंगशाला
गंगदत्त की कथा पुर, नगर और व्यापार की मण्डियों से युक्त और बड़े-बड़े पर्वत तथा बड़े देव मंदिर से शोभते वच्छ देश में जयवर्धन नामक प्रसिद्ध नगर था। वहाँ सिद्धांत प्रसिद्ध विशुद्ध धर्म क्रिया में दृढ राग वाला और न्याय नीति से विशिष्ट बन्धुप्रिय नाम का सेठ रहता था। उसे शिष्ट पुरुषों को मान्य और अति विनीत गंगदत्त नाम का पुत्र था। वह क्रमशः युवतियों के मन को हरण करने वाला युवा बना। उसकी सुंदर आकृति देखकर हर्षित बनें स्वयंभू नामक वणिक ने अपनी पुत्री के साथ उसका संबंध किया। फिर हर्षपूर्वक गंगदत्त पाणिग्रहण करने के योग्य उत्तम तिथि-मुहूर्त दिन आने पर उसके साथ विवाह किया। केवल जिस समय उसका हाथ उसने पकड़ा उसी समय उसको दुःसह दाह रोग उत्पन्न हुआ। इससे क्या मैंने अग्नि का स्पर्श किया या जहर के रस का सिंचन हुआ? इस तरह चिंतन करती दाहिने हाथ से अपना मुख छुपानेवाली ।।४१००।। दीन मनवाली, दोनों नेत्रों में से सतत् आँसू प्रवाह बहाती वक्र गरदन करके रोती हुई को देखकर उसके पिता स्वयंभू ने कहा कि-हे पुत्री! हर्ष के स्थान पर भी तूं इस तरह सन्ताप क्यों करती है कि जिससे तूं हँसते मुख स्नेहपूर्वक सखियों को भी नहीं बुलाती है? और हे पुत्री! तेरे विवाह महोत्सव को देखने से आनंद भरपूर मन वाले स्वजन लोगों के विलासपूर्वक गीत और नृत्यों को क्यों नहीं देखती? अतः अपनी गरदन सीधी कर सामने देख। आँखों की जल कर्णिका को दूर कर, तेज रूप मुख की शोभा को प्रकट कर, और इस शोक को छोड़ दे! फिर भी यदि अति गाढ़ शोक का कोई भी कारण हो तो उसे निःशंकता से स्पष्ट वचनों से कह, कि जिससे उसे शीघ्र दूर करूँ। उसने कहापिताजी! हो गई वस्तु को कहने से अब क्या लाभ है? मस्तक मुंडन के बाद नक्षत्र शोधन से क्या हित करेगा? स्वयंभू ने कहा-हे पुत्री! फिर भी तूं इस शोक का रहस्य कह। इससे उसने वर का सारा वृत्तान्त सुनाया। उसे सुनकर उस पर वज्रघात हो गया हो अथवा घर का सर्व धन नष्ट हुआ हो या शरीर पर काजल लगाया हो इस तरह वह निस्तेज बन गया। विवाह का कार्य पूर्ण हुआ और स्वजन वर्ग भी अपने घर गये। फिर अन्य दिन ससुर के घर जाने का समय आया। पति के दुर्भाग्य रूपी तलवार से अत्यन्त टूटे हृदयवाली तथा पति से छूटने के लिए अन्य कोई भी उपाय नहीं मिलने से उसने मकान के शिखर पर चढ़कर मरने के लिए शीघ्र शरीर को गिरते छोड़ दिया और गिरकर वहीं मर गयी।
माता-पिता दौड़कर आये, स्वजन लोग भी उसी समय आये और उसके शरीर सत्कार आदि समग्र क्रिया की। उस मृत्यु का निमित्त भी उस नगर में सर्वत्र प्रसिद्ध हो गया, इससे गंगदत्त ने भी अपने दुर्भाग्य से अत्यंत लज्जा को प्राप्त किया। केवल पिता ने उससे कहा कि-पुत्र! इस विषय पर जरा भी खेद नहीं करना। मैं ऐसा प्रयत्न करूँगा कि जिससे तेरी दूसरी पत्नी होगी। उसके बाद उसका उसी प्रकार से बहुत धन खर्च कर अनेक प्रयत्नों द्वारा दूर नगर में रहने वाले वणिक पुत्री के साथ उसका विवाह किया। वह दूसरी पत्नी भी विवाह के बाद उसी तरह ही होने से अतिशय शोक प्राप्तकर और केवल पति के घर जाने के समय वह भी फाँसी लगाकर मर गयी। इससे समग्र देश में भी दुःसह दुर्भाग्य के कलंक को प्रासकर शोक के भार से व्याकुल शरीर वाले गंगदत्त ने विचार किया कि-पूर्व जन्म में पापी मैंने कौन-सा महान पाप किया है कि जिसके प्रभाव से इस तरह मैं स्त्रियों के द्वेष का कारण रूप बनता हूँ? उन महासत्त्वशाली सनत्कुमार आदि भगवंत को धन्य है, कि जो दृढ़ स्नेह से शोभते भी चौसठ हजार स्त्रियों से युक्त महान् विशाल अंतःपुर को छोड़कर संयम मार्ग में चले थे। मैं तो निर्भागी वर्ग में अग्रेसर और स्वप्न में स्त्रियों का अनिष्ट करने वाला निर्भागी होने पर अहो! महान् खेद है कि मृग का बच्चा जैसे मृगतृष्णा से दुःखी होता है, वैसे आशा बिना का निष्फल विषय तृष्णा से दुःखी हो रहा हूँ। अरे! इससे ज्यादा सुख कहाँ मिलेगा? इस तरह वह जब चिंतन करता था, तब उसका पिता आया और उसने
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