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________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म विधि द्वार-संलेखना नामक पन्द्रहवाँ प्रतिद्वार कहते हैं। अल्प आहार वालों की इन्द्रियाँ विषयों में आकर्षित नहीं होती है। अथवा तप द्वारा खिन्न न हो और रस वाले विषयों (पदार्थों) में आसक्ति न करें। अधिक क्या कहें? एक-एक तप भी बार-बार उस तरह सम्यग् वासित करें कि उससे कृश होते हुए भी तुझे किसी प्रकार की असमाधि न हो। इस प्रकार शरीर संलेखना की क्रिया को अनेक प्रकार से करने पर भी क्षपक अध्यवसाय शुद्धि को एक क्षण भी न छोड़े। क्योंकि -अध्यवसाय विशुद्धि बिना जो विकृष्ट तप भी करें, फिर भी उसकी कदापि शुद्धि नहीं होती है । 1 और सविशुद्ध शुक्ल लेश्यावाला जो सामान्य - अल्प तप को करता है, तो भी विशुद्ध अध्यवसाय वाले वे केवलज्ञान रूपी शुद्धि को प्राप्त करतें हैं। इस अध्यवसाय की शुद्धि कषाय से कलुषित चित्तवाले को नहीं होती है, इसलिए उसकी शुद्धि के लिए कषाय रूपी शत्रु को दृढ़तापूर्वक निर्बल कर । कषाय में हल्का बना हुआ तूं शीघ्र क्रोध को क्षमा से, मान को मार्दव से, माया को आर्जव से और लोभ को संतोष अल्प कर। वह आत्मा क्रोध, मान, माया और लोभ के वश नहीं हो कि जिससे उन कषायों की उत्पत्ति को मूल में से छोड़ दे अथवा होने ही न दे। इसलिए उस वस्तु को छोड़ देनी चाहिए कि जिसके कारण कषाय रूपी अग्नि प्रकट होती हो, और उस वस्तु को स्वीकार करना चाहिए कि जिससे कषाय प्रकट न हो। क्योंकि जं अज्जियं चरित्तं, देसूणा वि पुव्वकोडी | तं पि कसाइयमेत्तो, हारेइ नरो मुहुत्तेण ।।४०८३ ।। कषाय करने मात्र से भी मनुष्य कुछ कम पूर्व क्रोड़ वर्ष तक भी जो चारित्र को प्राप्त किया हो उसे एक मुहूर्त में खत्म कर देता है। जली हुई कषाय रूपी अग्नि निश्चय समग्र चारित्र धन को जलाकर खत्म कर देती है और वह आत्मा सम्यक्त्व की भी विराधना कर अनंत संसारी बनता है । स्वस्थ बैठे पंगु के समान धन्य पुरुष के कषाय ऐसे निर्बल होते हैं कि निश्चय दूसरों द्वारा कषायों को जागृत करने पर भी उनको प्रकट नहीं होता है। कुशास्त्र रूपी पवन से प्रेरित कषाय अग्नि यदि सामान्य लोक में जलती है तो भले जले, परंतु वह आश्चर्य की बात है कि श्री जिनवचन रूपी जल से सिंचित भी प्रज्वलन करता है। इस संसार में वीतराग बनने से क्लेश का हिस्सेदार नहीं होता है, उसमें क्या आश्चर्य है? इसमें तो महाआश्चर्य है कि छद्मस्थ होने पर जो कषाय को जीतता है, इससे वह भी वीतराग समान है। क्रोधादि का निग्रह करने वाले को अनुक्रम से, क्रोध का त्याग करने से सुंदर रूप, अभिमान छोड़ने से ऊँच गोत्र, माया का त्याग करने से अविसंवादी, एकान्तिक सुख और लोभ का त्याग करने से विविध श्रेष्ठ लाभ होता है। इसलिए कषाय रूपी दावानल को उत्पन्न होते ही शीघ्र 'इच्छा, मिच्छा, दुक्कड़' रूपी पानी द्वारा बुझा देना चाहिए, और उसी तरह निश्चय ही हास्यादि नौ कषाय को, आहारादि चार संज्ञा को, रसगारव आदि तीन गारव और कृष्णादि छह लेश्या की परम उपशम द्वारा संलेखना करनी चाहिए। बारऔर कषाय बार तप करनेवाला और इससे प्रकट रूप में दिखती नसें, स्नायु तथा हाड़पिंजर जैसा शरीर वाला, संलेखना करने वाला, इस तरह द्रव्य भाव दो प्रकार की संलेखना को प्राप्त करता है। इस प्रकार सम्यग् रूप से द्रव्य-भाव उभयथा परिकर्मविधि के योग का साधन करने वाला, संलेखना कारक महात्मा आराधना रूपी विजय ध्वजा को प्राप्त करता है। और जो अपनी मति से इस विधि से विपरीत क्रिया में प्रवृत्ति करता है वह गंगदत्त के समान विराधक होता ।। ४०९३ ।। उसकी कथा इस तरह है : 1. अज्झवसाणविसुद्धीए, वज्जिओ जो तवं विगिट्टं पि । कुणइ न जायइ जम्हा, सुद्धि च्चिय तस्स कइया वि || ४०७७|| 174 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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