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परिकर्म विधि द्वार - गंगदत्त की कथा
श्री संवेगरंगशाला
प्राप्त किया है। इसलिए मेरा जीवन निरर्थक है, और दुष्ट मनुष्य जन्म को धिक्कार है! यद्यपि मैं अखण्ड देहवाला हूँ, फिर भी इस तरह मैंने विडम्बना प्राप्त की। इस तरह कुविकल्पों के वश पड़ा हुआ वह बोला कि - 'यदि इस साधु जीवन का कुछ फल हो तो मैं आगामी जन्म में इसके जैसा ही सौभाग्यशाली बनूँ।' ऐसा निदान करके वहाँ से मरकर वह माहेन्द्र कल्प में श्रेष्ठ देव उत्पन्न हुआ और वहाँ विषयों को भोगकर तथा आयुष्य पूर्णकर पृथ्वी के तिलक समान उज्जैन नगर में श्रीसमरसिंह राजा की सोमा नामक रानी की कुक्षि में पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ, श्रेष्ठ स्वप्न के द्वारा गर्भ की उत्तमता को सूचन करने वाला और निरोगी उसका उचित समय पर जन्म हुआ । उसके जन्म की खुशी मनायी गयी। कई ओर से बधाइयाँ आयीं, समय पर उसका नाम रणशूर रखा और फिर क्रमशः श्रेष्ठ यौवनवय प्राप्त किया। उसके बाद पूर्व निदान के कारण अमर्यादित उग्र सौभाग्य को प्राप्त किया। वह जहाँ-जहाँ घूमने लगा, वहाँ-वहाँ उसके ऊपर कटाक्ष फेंकती, काम के परवश बनी बहुत हाव-भाव विभ्रम और विलासयुक्त चेष्टा करती तथा निर्लज्ज बनी हुई स्त्रियाँ विविध क्रीड़ा करती घर का कार्य भी भूल जाती थी। फिर 'हमारा पति यही होगा अथवा तो अग्नि की शरण होगी।' ऐसे बोलती अत्यंत दृढ़ स्नेहवाली, राजा, महाराजा, सेनापति, बड़े-बड़े धनाढ्य, सामंत और मंत्रियों की अनेक पुत्रियों ने उसके साथ विवाह किया और दीर्घकाल तक उनके साथ में उसने एक ही साथ में पाँच प्रकार के विषय सुख के भोग किए। फिर मरकर वह गंगदत्त अपने दुराचरण के कारण संसार के चक्र में गिरा और वहाँ अति तीक्ष्ण लाखों दुःखों का चिरकाल भाजन बना।
इसलिए कहा है कि - पहले द्रव्य भाव इस तरह दोनों प्रकार की संलेखना कर बाद में भक्त परिज्ञा अनशन को करना चाहिए। इस तरह यह प्रथम द्वार में कहा है। परिकर्म करने वाले को प्रायः आराधना का भंग न हो ऐसी सम्यग् आराधना करनी चाहिए। श्री जिनेश्वर भगवान की आज्ञा भी यही है। इस तरह श्री जिनचंद्र सूरीश्वरजी रचित परिकर्म विधि सहित चार बड़े मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला नाम की आराधना के पंद्रह अंतर द्वार वाला, प्रथम परिक्रम विधि नामक द्वार का अंतिम संलेखना नामक प्रतिद्वार जानना। यह कहने से पंद्रह अंतर द्वार वाला परिक्रम विधि नाम का प्रथम महाद्वार भी सम्यग् रूप से संपूर्ण हुआ, ऐसा जानना । इस तरह संवेगरंगशाला नामक आराधना के पंद्रह अंतर द्वार वाला परिकर्म विधि नामक प्रथम द्वार यहाँ ||४१६८ । । श्लोकों से समाप्त हुआ ।
।। इति श्री संवेगरंगशाला प्रथम द्वार ।।
संवेग की महा महिमा
संवेगेणं भन्ते! जीवे किं जणयइ ?
हे भगवन्त संवेग से जीव को क्या प्राप्त होता है?
संवेगेणं अणुत्तरं धम्मसद्धं जणया । अणुत्तराए धम्मसद्धाए संवेगं हव्वमागच्छइ । अनंताणुबन्धि कोहमाणमायालो भे खवेइ । नवं च कम्मं न बन्धइ । तप्पच्चइयं च णं मिच्छत्तविसोहिं काऊणं दंसणाराहए भवइ । दंसणविसोहीए णं विसुद्धाए अत्थेगइए तेणेव भवग्गहणेण सिज्झइ सोहीए णं विसुद्धाए तत्थं पुणो भवग्गहणं नाइक्कमइ ।।
अर्थात् संवेग से जीव अनुत्तर- परम धर्म श्रद्धा को प्राप्त करता है। परम धर्म श्रद्धा से शीघ्र ही संवेग प्राप्त करता है। उस समय अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षय करता है और नये कर्मों का बन्ध नहीं करता है। तीव्र कषाय के क्षीण होने से मिथ्यात्व विशुद्ध कर अर्थात् मिथ्यात्व का क्षय कर दर्शन आराधना करता है। फिर मिथ्यात्व बंध नहीं होता है। दर्शन विशोधि के द्वारा विशुद्ध होकर कई जीवात्मा उसी जन्म में सिद्ध हो जाते हैं। एवं कई जीव दर्शन विशोधि से विशुद्ध होने पर तीसरे जन्म में मुक्त हो जाते हैं। इससे आगे जन्म-मरण नहीं करते हैं।
(उत्तराध्ययन के उन्नीसवें अध्ययन में)
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