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________________ श्री संवेगरंगशाला परगण संक्रमण द्वार-दिशा द्वार-आचार्य की योग्यता द्वितीय परगण-संक्रमण-द्वार दूसरे द्वार का मंगलाचरण : अणहं अरयं अरुयं अजरं अमरं अरागमऽपओसं । अभयमकम्ममजम्मं सम्मं पणमह महावीरं ।।४१६९।। अर्थात् :- पाप से रहित, रज रहित, रूप रहित जरा-वृद्धावस्था से रहित, मृत्यु से रहित, राग से रहित, द्वेष से रहित, भय से रहित, कर्म से रहित एवं जन्म से रहित श्रवण भगवान श्री महावीर दे भव्यात्माओं! सम्यग् रूप से नमस्कार करो। प्रथम द्वार में परिकर्म विधि का जो वर्णन किया है उसका गण संक्रमण करते आराधकों के लिए शुद्ध विधि कहूँगा, इसमें प्रतिद्वार दस हैं। वे इस प्रकार हैं :- (१) दिशा द्वार, (२) क्षामणा द्वार, (३) अनुशास्ति द्वार, (४) परगण गवेषण द्वार, (५) सुस्थित (गुरु) गवेषण द्वार, (६) उप-सम्पदा द्वार, (७) परीक्षा द्वार, (८) प्रतिलेखना द्वार, (९) पृच्छा द्वार, और (१०) प्रतिपृच्छा द्वार हैं। इनका वर्णन क्रमशः कहते हैं। पहला दिशा द्वार : दिशा अर्थात् गच्छ, क्योंकि दिशा से यहाँ यति-समूह के कहने योग्य कहता हूँ। इसलिए अब वह दिशागच्छ की अनुज्ञा को यथार्थ रूप से कहता हूँ। इस ग्रन्थ के पूर्व द्वार में विस्तारपूर्वक कथनानुसार जिसने (संस्तारक) दीक्षा स्वीकार की है. वह श्रावक अथवा प्रव्रज्या को दीर्घकाल पालन करने वाला कोई साध अथवा निर्मल गुण-समूह से पूज्य सूरिपद को प्राप्त करने वाले साधु-सूरि (आचार्य) ही निरतिचार आराधना विधि कर सकते हैं। उसमें जो आगम विधिपूर्वक दीर्घकाल सूरिपद का अनुपालनकर, समस्त सूत्र अर्थ के अध्ययन द्वारा शिष्यों का पालन-पोषणकर, शास्त्र मर्यादानुसार ऋद्धि, रस और शाता इन तीनों गारव रहित विहार कर भव्य आत्माओं को प्रतिबोध कर, फिर आराधना करने के लिए यदि चाहे तो उत्तरोत्तर बढ़ते प्रशस्त परिणाम रूप, संवेग वाले वे आचार्य (सूरि) प्रथम बहुत साधुओं के रहने योग्य बड़े क्षेत्र में जाय। उसके बाद उस नगर, खेट, कर्बट आदि स्थानों में विचरते अपने साधु गण को बुलाकर उनके समक्ष इस प्रकार अपना अभिप्राय बतलावें। उसके पश्चात् पक्षपात बिना सम्यग् बुद्धि से प्रथम निश्चय अपने ही गच्छ में अथवा अन्य गच्छ में आचार्य पद के योग्य पुरुष रत्न की बुद्धि से खोज करें। वह इस प्रकार :आचार्य की योग्यता : आर्य देश में जन्म लेने वाला, उत्तम जाति, रूप, कुल आदि पुण्य संपत्ति से युक्त हो, सर्व कलाओं में कुशल, लोक व्यवहार में अच्छी तरह कुशल हो, स्वभाव से सुंदर आचरण वाला, स्वभाव से ही गुण के अभ्यास में सदा तल्लीन रहने वाला, प्रकृति से ही नम्र स्वभाव वाला, प्रकृति से ही लोगों के अनुराग का पात्र, प्रकृति से ही अति प्रसन्न चित्तवाला, प्रकृति से ही प्रिय भाषा बोलने में अग्रसर, प्रकृति से ही अति प्रशान्त आकृति वाला, और इससे ही प्रकृति गंभीर, प्रकृति से ही अति उदार आचार वाला, प्रकृति से ही महापुरुषों के आचार में चित्त की प्रीति वाला, और प्रकृति से ही निष्पाप विद्या प्राप्त करने में उद्यमी चित्त वाला, कल्याण-धर्म मित्रों की मित्रता करने में अग्रसर, निंदा नहीं करने वाला, माया रहित, मजबूत शरीर वाला, बुद्धि-बल वाला, धार्मिक लोगों में मान्य, अनेक देशों में विचरण किया हो, और सर्व देशों की भाषा का ज्ञाता, व्यवहार में बहुत अनुभवी, देश परदेश के विविध वृत्तान्तों को सुने हो, दीर्घदृष्टा, अक्षुद्र, दाक्षिण्य के महा समुद्र, अति लज्जालु, 178 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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