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श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-पंच महावत' रक्षण नामक दसवाँ द्वार-चारुदत्त की कथा वाला काल अवग्रह, जाते आते पांच कोस आदि मर्यादा रूप क्षेत्र अवग्रह एवं उनकी वसति आदि प्रत्येक को उनकी अनुज्ञापूर्वक उपयोग करें, अन्यथा अदत्तादान दोष लगता है यह तीसरे व्रत की पाँचवीं भावना जानना।
चौथे महाव्रत की भावना :- ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने वाला मुनि अति स्निग्ध आहार को एवं ऋक्ष (रुखा सूखा) भी अति प्रमाण आहार का त्याग करे वह निश्चय चौथे व्रत की प्रथम भावना होती है। अपनी शोभा के लिए श्रृंगारिक वस्तुओं का योग तथा शरीर, नाखून, दांत, केस का श्रृंगार नहीं करना वह चौथे व्रत की दूसरी भावना जानना। स्त्री के अंगोपांग आदि को सरागवृत्ति से मन में स्मरण नहीं करना और रागपूर्वक देखना भी नहीं वह चौथे व्रत की तीसरी भावना जानना। पशु, नपुंसक और स्त्रियों से युक्त वसति को तथा स्त्री के आसन-शयन का त्याग करने वाले को चौथे व्रत की चौथी भावना होती है। केवल स्त्रियों के साथ अथवा स्त्री संबंधी बातों को नहीं करने से और पूर्व में भोगे-भोगों का स्मरण नहीं करने से चौथे व्रत की पाँचवीं भावना जानना।
पाँचवें महाव्रत की भावना :- मन को अरुचिकर अथवा रुचिकर शब्दादि पाँच प्रकार के इन्द्रियों के विषयों में प्रद्वेष और गृद्धि-आसक्ति नहीं करने वाले को पाँचवें महाव्रत की पाँचों भावनाएँ होती है।
महाव्रत पालन का उपदेश :- इस प्रकार हे सुंदर क्षपक मुनि! आत्मा में व्रतों की परम दृढ़ता को चाहने वाला तूं पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं का चिंतन करना। अन्यथा सख्त पवन से प्रेरित जंगल की कोमल लता के समान कोमल चंचल मन वाले और इससे इन व्रतों में अस्थिरात्मा हे क्षपक मुनि! तूं उसके फल को प्राप्त नहीं
? इसलिए हे देवानप्रिय! पाँच महाव्रत में दृढ हो जाओ। क्योंकि यदि इन व्रतों में ठगा गया तो तूं सर्व स्थानों में ठगा गया है ऐसा जान। जैसे तुम्बे की दृढ़ता बिना चक्र के आरे अपना कार्य नहीं कर सकते हैं, वैसे महाव्रतों में शिथिल आत्मा के सर्व धर्म गुण निष्फल होते हैं ।।८२००।। जैसे वृक्ष की शाखा, प्रशाखा, पुष्प और फलों का पोषक कारण उसका मूल होता है वैसे धर्म गुणों का भी मूल महाव्रतों की श्रेष्ठता, दृढ़ता है। जैसे भीतर से दीमक नामक जीवों से खाया गया खंभा घर के भार को नहीं उठा सकता, वैसे ही व्रतों में शिथिल आत्मा धर्म की धूरा के भार को उठाने में कैसे समर्थ हो सकता है? और जैसे छिद्र वाली निर्बल नाव वस्तुओं को उठाने में समर्थ नहीं है वैसे व्रतों में शिथिल, अतिचार वाला मुनि धर्म गुणों के भार को उठा नहीं सकता।
1 और छिद वाला घडा भी जैसे जल को धारण करने अथवा रक्षण करने में समर्थ नहीं है वैसे व्रतों में शिथिल अतिचार वाला मुनि धर्म गुणों को धारण करने में या रक्षण करने में समर्थ नहीं हो सकता है। इन व्रतों के अनादर से, अदृढ़ता से और अतिचार सहित जीवात्मा ने इस अपार संसार समुद्र में परिभ्रमण किया है, कर रहा है और परिभ्रमण करेगा।
इसलिए हे सुंदर मुनि! तूं सम्यक् संविज्ञ मन वाला होकर पूर्वाचार्य के इन वचनों का मन में चिंतन कर। जिसने पाँच महाव्रत रूपी ऊँचे किल्ले को तोड़ा है, वह चारित्र भ्रष्ट है और केवल वेषधारी है उसका अनंत संसार परिभ्रमण जानना। महाव्रत और अणुव्रतों को छोड़कर जो अन्य तप का आचरण करता है, वह अज्ञानी मूढ़ात्मा डूबी हुई नाव वाला जानना। महान् फलदायक ब्रह्मचर्य व्रत को छोड़कर जो सुख की अभिलाषा रखता है वह बुद्धि से कमजोर मूर्ख तपस्वी करोड़ सोना मोहर से काँच के पत्थर को खरीदता है। और चतुर्विध सकल श्री संघ वाले मंडप में मिलने पर, संसार रूपी भयंकर व्याधि से पीड़ित अन्यत्र रक्षण नहीं मिलने से इस महानुभाव वैद्य के शरण के समान हमारे शरण में आया है अतः अनुग्रह करने योग्य है। इस प्रकार समझकर परोपकार परायण श्रेष्ठ गुरु द्वारा प्रदत्त इन व्रतों में हे सुंदर मुनि! सुदृढ़ बन जाओ। जैसे भीतर की शक्ति वाला मजबूत स्तंभ सभा घर के भार को उठाने में समर्थ बनता है वैसे व्रतों में अतिदृढ आत्मा उत्तम धर्म धरा को
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