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________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-निःशल्यता वामक अठारहवाँ द्वार-लंद नगियार की कथा की घटा से शोभित महान् विस्तारपूर्वक इष्ट प्रदेश में, मुसाफिरों को आरोग्य प्रद भोजनशाला से युक्त तथा सफेद कमल, चंद्र विकासी कमल और कुवलय के समूह से शोभित, पूर्ण पानी के समूह वाली नंदा नाम की बावड़ी तैयार की। वहाँ स्नान करते, जल क्रीड़ा करते और जल को पीते लोग परस्पर ऐसा बोलते थे कि-उस नंद मणियार को धन्य है कि जिसने निर्मल जल से भरी, मछली, कछुआ भ्रमण करते, पक्षियों के समूह से रमणीय इस बावड़ी को करवाई है। ऐसी लोगों की प्रशंसा सुनकर अत्यंत प्रसन्नता को प्राप्त करते वह नंद सेठ स्वयं अमृत से सिंचन समान अति आनंद मानता था। समय जाते पूर्व जन्म के अशुभ कर्मों के दोष से शत्रु के समान दुःखकारक (१) ज्वर, (२) श्वास, (३) खाँसी, (४) दाह, (५) नेत्र शूल, (६) पेट में दर्द, (७) मस्तक में दर्द, (८) कोढ़, (९) खसरा, (१०) बवासीर, (११) जलोदर, (१२) कान में दर्द, (१३) नेत्र पीड़ा, (१४) अजीर्ण, (१५) अरुचि, और (१६) अति भगंदर। इस तरह सोलह भयंकर व्याधियों ने एक साथ में उसके शरीर में स्थान किया और उस वेदना से पीड़ित उसने नगर में उद्घोषणा करवाई कि जो मेरे इन रोगों में से एक का भी नाश करेगा उसको मैं दरिद्रता का नाश हो इतना धन दे दूंगा ।।९२८६ ।। उसे सुनकर औषध से युक्त अनेक वैद्य आये और उन्होंने शीघ्र अनेक प्रकार से चिकित्सा की, परंतु उस वेदना में थोड़ा भी अंतर नहीं हुआ अर्थात् ज्वर जैसा था वैसा ही बना रहा। अतः लज्जा से युक्त निराश होकर जैसे आये थे वैसे वापिस चले गये। और रोग की विशेष वेदना से पीड़ित नंद सेठ मरकर अपनी बावड़ी में गर्भज मेंढक रूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ उसने 'नंद सेठ को धन्य है कि जिसने यह बावड़ी करवाई है।' ऐसा लोगों द्वारा बात सुनकर शीघ्र ही अपने पूर्व जन्म का स्मरण ज्ञान हुआ। इससे संवेग होते 'यह तिर्यंचगति मिथ्यात्व का फल है' ऐसा विचार करते वह पुनः पूर्व जन्म में पालन किये हुए देश विरति आदि जिन धर्म के अनुसार व्रत, नियमों का अपनी अवस्था के अनुसार पालन करने लगा और उसने अभिग्रह स्वीकार किया किआज से सदा मैं लगातार दो-दो उपवास की तपस्या करूँगा और पारणे में केवल अचित्त पुरानी सेवाल आदि को खाऊँगा, ऐसा निश्चय करके वह मेंढक महात्मा के स्वरूप में रहने लगा। एक समय वहाँ श्री महावीर प्रभु पधारें। इससे उस बावड़ी में स्नान करते लोग परस्पर ऐसा बोलने लगे कि-'शीघ्र चलो जिससे गुणशील चैत्य में बिराजमान और देवों से चरण पूजित श्री वीर परमात्मा को वंदन करें।' यह सुनकर भक्ति प्रकट हुई और अति समूह भाव वाला मेंढक श्री वीर प्रभु को वंदन के लिए अपनी तेज चाल से शीघ्र गुणशील उद्यान की ओर जाने के लिए रवाना हुआ। इधर शणगारित हाथी के समूह ऊपर बैठे सुभटों से मजबूत गाढ़ घिराववाले और अति चपल अश्व के समूह की कठोर खूर से भूमि तल को खोदते तथा सामंत, मंत्री, सार्थवाह, सेठ और सेनापतियों से घिरे हुए हाथी के ऊपर बैठे, मस्तक ऊपर उज्ज्वल छत्र धारण करते और अति मूल्यवान अलंकारों से शोभित श्रेणिक महाराजा शीघ्र भक्तिपूर्वक श्री वीर परमात्मा को वंदनार्थ चला। उस राजा के एक घोड़े के खुर के अग्रभाग से भक्तिपूर्वक प्रभु को वंदनार्थ जाते वह मेंढक मार्ग में मर गया ।।९३०० ।। उस प्रहार से पीड़ित उस मेंढक ने अनशन स्वीकार किया। प्रभु का सम्यक् स्मरण करते वह मरकर सौधर्म देवलोक में दर्दुरावतंसक नामक श्रेष्ठ विमान में दर्दुरांक नामक देव रूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ से च्यवकर अनुक्रम से वह महाविदेह में से मुक्ति को प्राप्त करेगा। अल्पकाल में सिद्धि प्राप्त करने वाले भी नंद ने यदि इस तरह मिथ्यात्व शल्य के कारण हल्की तिर्यंच गति को प्राप्त की थी, तो हे क्षपक मुनि! तूं उस शल्य का त्याग कर। और तीनों शल्यों का त्यागी तूं फिर पाँच समिति और तीन गुप्ति द्वारा शिव सुख साधने वाले सम्यक्त्व आदि गुणों की साधना कर। प्यासा जीव पानी पीने से प्रसन्न होता है, वैसा उपदेश रूपी अमृत के पान से चित्त प्रसन्न 386 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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