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समाधि लाभ द्वार-निःशल्यता नामक अठारहवाँ द्वार-नंद मणियार की कथा
श्री संवेगरंगशाला
आवास भूत श्री वीर प्रभु ने जीव हिंसा की विरति वाला, असत्य और चौर्य कर्म से सर्वथा मुक्त, मैथुन त्याग की प्रधानता वाला एवं परिग्रह रूपी ग्रह को वश करने में समर्थ साधु और गृहस्थ के योग्य श्रेष्ठ धर्म का सम्यग् उपदेश दिया। इसे सुनकर शुभ प्रतिबोध होने से नंद मणियार सेठ ने बारह व्रत सहित संपूर्ण गृहस्थ धर्म को स्वीकार किया। और फिर अपने को संसार से पार उतरने के समान मानता वह प्रभु को अतीव भक्ति से वंदन करके बार-बार स्तुति करने लगा कि :
भयंकर संसार में उत्पन्न हुए महाभय का नाश करने वाले, निर्मल भुजा बल वाले, क्रोध अथवा कलियुग की मलिनता का हरण करने के लिए पानी के प्रवाह तुल्य और महान बड़े गुण समूह के मंदिर, हे देव! आपश्री विजयी हो। पर-दर्शन के गाढ़ अज्ञान अंधकार का नाश करने वाले हे सूर्य!, काम रूपी वृक्ष को जलाने वाले हे दावानल! और अति चपल घोड़ों के समान इन्द्रियों को वश करने के लिए दामण-रस्सी समान, हे वीर परमात्मा! आप श्री विजयी हो। मोह महाहस्ती को नाश करने वाले हे सिंह!, लोभ रूपी कमल को कुम्हलाने वाले हे चंद्र!, और संसार के पथ में चलने से थके हुए अनेक प्राणियों के ताप को हरण करने वाले हे देव!, आप विजयी रहो। रोग, जरा और मरण रूपी शत्रु सेना के भय से मुक्त शरीरवाले, मन और इन्द्रियों को उत्कृष्ट वश करने वाले, निर्दयता रूपी पराग का नाश करने में कठोरतर पवन के समान और माया रूपी सर्प को नाश करने में हे गरूड़! आपकी जय हो। हे करुणारस के सागर! हे जहर को शांत करनेवाले अमृत! हे पृथ्वी को जोतने में बड़े हल समान! अथवा विष तुल्य जो राग है तद्प पृथ्वी को जोतने के लिए तीक्ष्ण हल समान! और रम्भा समान मनोहर स्त्रियों के भोगरस के संबंध से अबद्ध वैरागी। आप की जय हो। हे प्राणीगण के सुंदर हितस्वी बंधु! हे राग दशा को नाश करनेवाले, हे करणसित्तरी और चरणसित्तरी के श्रेष्ठ प्ररूपणा रूपी धनवान दातार!
और नयो के समूह से व्याप्त सिद्धांत वाले प्रभु! आप विजयी हो। हे वंदन करते सुर असुरों के मुकुट के किरणों से व्याप्त पीले चरण तल वाले और कंकोल वृक्ष के पत्तों के समान लाल हस्त कमल वाले हे महाभाग प्रभु! आप विजयी हो। हे संसार समुद्र को पार पाये हुए! हे गौरव की खान! हे पर्वत तुल्य धीर! और फिर जन्म नहीं लेने वाले हे वीर! आप को मैं संसार का अंत करने के लिए बार-बार वंदन करता हूँ।
इस प्रकार संस्कृत, प्राकृत, उभय में सम शब्दों वाली 'जैसे संसार दावा की स्तुति' है वैसी गाथाओं से श्री वीर भगवान की स्तुतिकर जैन धर्म को स्वीकारकर, अति प्रसन्न चित्तवाले नंद मणियार सेठ अपने घर गया, फिर जिस तरह स्वीकार किया था उसी तरह बारह व्रत रूप सुंदर जिन धर्म का वह पालन करने लगा और वीर प्रभु भी अन्य स्थानों में विचरने लगे। फिर अन्यथा कभी सुविहित साधुओं के विरह से और अत्यंत असंयमी मनुष्यों के बार-बार दर्शन से, प्रतिक्षण सम्यक्त्व अध्यवसाय स्थान घटने से और मिथ्यात्व के अध्यवसाय समूह हमेशा बढ़ने से, सम्यक्त्व से रहित हुआ उसने एक समय जेठ मास के अंदर पौषधशाला में अट्ठम (तीन उपवास) के साथ पौषध किया। फिर अट्ठम की तपस्या से शरीर में शिथिलता आने से तृषा और भूख से पीड़ित नंद सेठ को ऐसी चिंता प्रकट हुई कि वे धन्य हैं और कृतपुण्य हैं कि जो नगर के समीप में पवित्र जल से भरी बावड़ियाँ बनाते हैं। जो बावड़ियों में नगर के लोग हमेशा पानी को पीते हैं, ले जाते हैं और स्नान करते हैं। अतः प्रभात होते ही मैं भी राजा की आज्ञा प्राप्त कर बड़ी-बड़ी बावड़ियाँ तैयार करवाऊँगा। ऐसा विचारकर उसने सूर्य उदय होते पोषह को पारकर स्नान किया, विशुद्ध वस्त्रों को धारण कर, हाथ में भेंट वस्तुएँ लेकर वह राजा के पास गया। और राजा को विनयपूर्वक नमस्कार करके निवेदन करने लगा कि हे देव! आपश्रीजी की आज्ञा से नगर के बाहर समीप में ही बावड़ी बनाने की इच्छा करता हैं। अतः राजा ने उसे आज्ञा दी। फिर उसने शीघ्र वक्षों
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