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________________ समाधि लाभ द्वार - प्रतिपति नामक दूसरा द्वार होते क्षपक मुनि निर्वृत्ति को प्राप्त करता है। इस प्रकार संसार सागर में नाव समान, सद्गति में जाने का सरल मार्ग रूप, चार मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अंतर द्वार से रची हुई समाधि लाभ नामक मूल चौथे द्वार के अंदर अठारह अंतर द्वार से रचा हुआ प्रथम अनुशास्ति द्वार का अंतिम निःशल्यता नाम का अंतर द्वार कहा है, और इसे कहने से यह अनुशास्ति द्वार समाप्त हुआ। अब इस तरह हित शिक्षा सुनाने पर भी जिसके अभाव में कर्मों का दूरीकरण न हो उसे प्रतिपत्ति (धर्म स्वीकार) द्वार कहता हूँ । । ९३०९।। श्री संवेगरंगशाला प्रतिपत्ति नामक दूसरा द्वार : इस प्रकार अनेक विषयों की विस्तार पूर्वक हितशिक्षा सुनकर अति प्रसन्न हुए और संसार समुद्र से पार होने के समान मानता हर्ष की वृद्धि से विकसित रोमांचित वाला क्षपक मुनि, मस्तक पर दो हस्त कमल को जोड़कर हृदय में फैलता सुखानंद रूपी वृक्ष के अंकुरों के समूह से युक्त हो इस तरह 'आपने मुझे सुंदर हित शिक्षा दी है' गुरुदेव को बार-बार कहता हुआ भक्ति के समूह से वाणी द्वारा कहे कि - हे भगवंत ! तत्त्व से आपसे अधिक अन्य वैद्य जगत में नहीं है कि जिसे आपश्री इस तरह मूल में से कर्मरूपी महाव्याधि को नाश करते हो । आप ही एक इन्द्रियों के साथ की युद्ध की रंगभूमि में बलवान अंतर शत्रुओं से मारे जाते अशरण जीवों की शरण हैं। आप ही तीन लोक में फैलते मिथ्यात्व रूपी अंधकार के समूह को नाश करने में समर्थ ज्ञान के किरणों का समूह रूप सूर्य हैं। इससे आपने मुझे जो अत्यंत दीर्घ संसार रूपी वृक्ष के मूल अंकुर समान और अत्यंत अनिष्टकारी अठारह पाप स्थानक के समूह को हमेशा त्याग करने योग्य बतलाया उन तीनों काल के पाप स्थानकों को मैं त्रिविध त्याग करता हूँ। उत्तम मुनियों को अकरणीय, मिथ्या पंडितों, अज्ञानियों के आश्रय करने योग्य, निंदनीय आठ मद स्थान रूपी मोह की मुख्य सेना की मैं निंदा करता हूँ। तथा दुःख के समूह में कारण भूत दुर्गतियों के भ्रमण में सहायक और अरति करने वाले क्रोधादि कषायों का भी अब से त्रिविध - त्रिविध से त्याग करता हूँ। और प्रशम के लाभ को छोड़ानेवाला और हर समय उन्माद को बढ़ाने वाला समस्त प्रमाद का मैं त्रिविध-त्रिविध त्याग करता हूँ। पाप की अत्यंत मैत्री करनेवाले, और प्रचंड दुर्गति के द्वार को खोलने वाले राग का भी बंधन के समान मैं त्रिविध - त्रिविध त्याग करता हूँ । इस प्रकार त्याग करने योग्य त्याग करके पुनः आपके समक्ष उत्कृष्ट शिष्टाचारों में एक उत्तम सम्यक्त्व को में शंका आदि दोषों में रहित स्वीकार करता हूँ। और हर्ष के उत्कर्ष से विकसित रोमांचित वाला मैं प्रतिक्षण श्री अरिहंत आदि की भक्ति प्रयत्नपूर्वक स्वीकार करता हूँ। जन्म मरणादि संसार की पुनः पुनः परंपरा रूप हाथियों के समूह को नाश करने में एक सिंह समान श्री पंच नमस्कार को मैं सर्व प्रयत्नपूर्वक स्मरण करता हूँ। सर्व पाप रूपी पर्वत को चूर्ण करने में वज्र समान और भव्य प्राणियों को आनंद देने वाले सम्यग् ज्ञान के उपयोग को मैं स्वीकार करता हूँ, और आपकी साक्षी में संसार के भय को तोड़ने में दक्ष और पाप रूपी सर्व शत्रुओं को विनाश करनेवाले पांच महाव्रतों की में रक्षा करता हूँ। तथा तीन जगत को क्लेश कारक राग रूपी प्रबल शत्रु के भय को नाश करने में समर्थ और मूढ़ पुरुषों को दुर्जय चार शरणों को मैं स्वीकार करता हूँ। पूर्व जन्म में बंध किये हुए वर्तमान काल के और भविष्य के अति उत्कृट भी दुष्कृत्य की बार-बार मैं निंदा करता हूँ। तीनों लोक के जीवों ने जिसके दोनों चरण कमलों को नमस्कार किया है वे श्री वीतराग देव के वचनों के अनुसार मैंने जोजो सुकृत किया हो, उसकी मैं आज अनुमोदना करता हूँ। बढ़ते शुभ भाव वाला मैं, अनेक प्रकार के गुणों को करने वाला और सुख रूप मच्छ को पकड़ने में श्रेष्ठ जाल तुल्य भावनाओं के समूह की दृढ़ता से स्मरण करता 387 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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