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________________ श्री संवेगरंगशाला परिकम द्वार-अर्ह नामक अंतर द्वार-वंकचूल की कथा परिचय होने के कारण वंकचूल को कुछ भक्ति जागृत हुई उसने अपने मुख्य मनुष्यों को बुलाकर सम्यग् रूप में कहा कि-हे देवानुप्रियों! मुझे क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए समझकर ब्राह्मण, वणिक् आदि अच्छे लोग भी यहाँ पर आयेंगे, इसलिए अब से जीव हिंसा, मांसाहार और सुरापान की क्रीड़ा घर में नहीं करना, परंतु पल्ली के बाहर करना। ऐसा करने से ये साधु भी सर्वथा दुगच्छा को छोड़कर तुम्हारे घरों में यथा समय आहार पानी लेंगे। 'जैसी स्वामी की आज्ञा है वैसा ही करेंगे।' ऐसा कहकर उन्होंने स्वीकार किया और अपनी आराधना में उद्यमशील मुनि भी दिन व्यतीत करने लगें। उसके पश्चात् ममत्व रहित सूरिजी महाराज ने विहार का समय जानकर वंकचूल शय्यातर होने से विधिपूर्वक उसे इस तरह कहा-हे राजपुत्र! तुम्हारे वसति दान की एक सहायता से हम इतने दिन यहाँ समाधिपूर्वक रहें, और अब चौमासे की अवधि पूर्ण हो गयी है और यह प्रत्यक्ष चिह्नों से विहार का समय सम्यग् रूप से दिखता है। देखो! बाड़ें ऊँची हो गयी हैं, जाते-आते गन्ने की गाड़ियों से जंगल के सभी मार्ग भी चालू हैं। पर्वत की नदियों में पानी कम हो गया है, बैल भी दृढ़ बल वाले हो गये हैं, मार्गों में पानी सूख गया है और गाँव में कीचड़ भी सूख गया है। इसलिए हे महायश! तूं परम उपकारी होने से मैं ऐसा कहता हूँ कि अब हमें दूसरे गाँव में जाने की अनुमति दो, गोकुल, शरदऋतु के बादल, भ्रमर का समूह, पक्षी और उत्तम मुनि आदि का निवास स्थान स्वाभाविक ही अनियत होता है। ऐसा कहकर आचार्यश्रीजी मुनियों के साथ चलने लगे तब पल्लीपति उनको विदा करने के लिए साथ चला। आचार्य श्री के साथ वह वहाँ तक गया जहाँ तक अपनी पल्ली की हद थी, फिर आचार्यजी को नमस्कार करके कहने लगा कि-हे भगवंत! यहाँ से आगे यह सीमा परदेश की है. इसलिए मैं आगे नहीं आता हैं आप निर्भय होकर पधारें. मैं भी अपने घर जाता हूँ। आचार्यश्री ने कहा-हे राजपुत्र! धर्म कथा नहीं करने का तेरे साथ हमने जो स्वीकार किया था वह अब पूर्ण हुआ है, इसलिए यदि तेरी अनुमति हो तो कुछ अल्प धर्मोपदेश देने की इच्छा है, तो हे वत्स! हम धर्म कहेंगे अथवा पूर्व के समान यहाँ भी तेरा निषेध है। 'चलते हुए आचार्य कितना कहने वाले हैं? भले दो शब्द कहते हैं तो कहने दो' ऐसा विचार कर उसने कहा कि 'जो कष्ट बिना हो वैसा कहो।' इस समय आचार्यश्री जिस नियमों से बुद्धि धर्माभिमुख हो, जिस नियमों से प्रत्यक्षमेव आपत्तियों का नाश हो और निश्चय से यह जाने कि 'नियमों का यह फल है' ऐसा नियमों का श्रुतज्ञान के उपयोग से सविशेषपूर्वक जानकर बोले कि-हे भद्रक! (१) किसी पर आक्रमण करने से पहले सात-आठ कदम पीछे हटना, (२) तुम भूख से यदि अत्यन्त पीड़ित हो फिर भी जिसका नाम नहीं जानते हो ऐसे अनजाने फल नहीं खाना, (३) बड़े राजा की पट्टरानी के साथ सम्भोग नहीं करना, और (४) कौए का मांस नहीं खाना। ये चारों नियम तूं जीवन तक सर्व प्रयत्न से पालन करना। क्योंकि पुरुषों का यही पुरुषव्रत रूप पुरुषार्थ है। किंच, माणेककणमुत्ताहलाई महिलाण मंडणं एयं। पडिवन्नपालणं पुण सप्पुरिसाणं अलंकारो ।।९३४।। माणिक्य, सोना, मोती, आदि स्त्रियों के आभूषण हैं और स्वीकार की हुई प्रतिज्ञा का पालन यह सत्पुरुषों का अलंकार है ।।९३४।। क्योंकि सत्पुरुषों का प्रतिज्ञा पालन में 'भले मस्तक कट जाये, संपत्तियों और स्वजन बंधु भी अलग हो जाएँ परंतु प्रतिज्ञा का पालन करना, जो होने वाला हो वह हो' ऐसा निश्चय होता है। मनुष्यों को सज्जन दुर्जन इस विशेषता से कहा जाता है, अन्यथा पंचेन्द्रियत्व से सर्व समान है उसमें भेद किस तरह से होते? आचार्यश्री के कहने पर और चारों नियम सुगम होने से वंकचूल ने स्वीकार कर लिया, और महाराज श्री को नमस्कार कर वह भिल्लपति अपने घर वापिस आया। तथा शिष्यों से युक्त आचार्यश्रीजी इर्यासमिति का पालन करते यथेच्छ देश 46 - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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