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________________ परगण संक्रमण द्वार-अनुशास्ति द्वार - वैयावच्य की महिमा श्री संवेगरंगशाला भी सारा फल चिंतामणी को जीतने वाला तपस्वी, नव दीक्षित, बाल, ग्लान आदि मुनियों की वैयावच्य करने का फल है। इसलिए हे महानुभाव ! जो समर्थ होने पर भी अचिन्त्य महिमा वाले वैयावच्य को नहीं करता है उसे शुभ - सुख का शत्रु समझना । उसने तीर्थंकर भगवान की आज्ञा के प्रति क्रोध किया है, श्रुतधर्म की विराधना तथा अनाचार किया और आत्मा को, परलोक के वचन को दूर फेंककर अहित किया है। और गुण नहीं होने पर गुणों को प्रकट करने के लिए तथा विद्यमान गुणों की वृद्धि करने के लिए हमेशा सज्जनों के ही साथ संग करना, विद्यमान गुणों का नाश होने के भय से, अप्राप्त गुण अति दूर होने के भय से और दोषों की प्राप्ति होने के भय दुर्जन की संगति का त्याग करना । यदि नया घड़ा सुगंधीमय अथवा दुर्गंधीमय पदार्थ से भरा हुआ हो तो वैसा ही गंध वाला बनता है, तो भावुक मनुष्य संगति से उसके गुण-दोष क्यों नहीं प्राप्त करता है? अर्थात् जैसी संगति होगी वैसा ही मनुष्य बनेगा। जैसे अग्नि के संग से पानी अपनी शीतलता को गँवा देता है, वैसे प्रायः दुर्जन के संग से सज्जन भी अपने गुणों को गँवा देता है । चण्डाल के घर दूध को पीते ब्राह्मण के समान, दुर्जन की सोबत करने से सज्जन लोगों में भी दोष की शंका का पात्र बनता । दुर्जन लोगों की संगति से वासित बना वैरागी भी प्रायः सज्जनों के सम्पर्क में प्रसन्न नहीं होता है, परंतु दुर्जन लोगों में रहने से प्रसन्न होता है, जैसे गंध रहित भी देव की शेष मानकर लोग मस्तक पर चढ़ाते हैं, वैसे सज्जन के साथ रहने वाला दुर्जन मनुष्य भी पूजनीय बनता है । इस तरह जो-जो चारित्र गुण का नाश करते हैं उन उन अन्य वस्तुओं का भी त्याग करो जिससे तुम दृढ़ संयमी बनों। पासत्थादि के साथ परिचय का भी हमेशा प्रयत्नपूर्वक त्याग करना क्योंकि संसर्गवश पुरुष तुरन्त उसके समान बनता है। जैसे कि संविग्न को भी पासत्थादि की संगति से उसके प्रति प्रीति उत्पन्न होती है, प्रीति से विश्वास जागृत होता है, विश्वास होने से राग और राग से तन्मयता ( तुल्यता) होती है, उसके समान होने से लज्जा का नाश होता है और इससे निःशंकता से अशुभ विषय में प्रवृत्ति होती है, इस तरह धर्म में प्रेम रखने वाला भी कुसंसर्ग के दोष से शीघ्र संयम से परिभ्रष्ट होता है। और संविज्ञों के साथ रहने वाला धर्म में प्रीति बिना ASST भी तथा कार भी पुरुष भावना से, भय से, मान से अथवा लज्जा से भी चरण-कमल-मूल गुण और उत्तर गुणों में उद्यम करता है और जैसे अति सुगंधमय कर्पूर, कस्तूरी के साथ मिलने से विशेष सुगंधमय बनता है, वैसे संविज्ञ, संविज्ञ की संगति से अवश्यमेव सविशेष गुणवाला बनता है। कहा है कि पासत्थसयसहस्साओ, हदि एको वि वरमिह सुसीलो । जं संसियाण दंसण - नाण चरित्ताणि वड्ढति ।।४५३७ ।। 'लाख पासत्थाओं से भी एक सुशील व्यक्ति श्रेष्ठ माना जाता है।' क्योंकि उसका आश्रय करने वाले को ज्ञान, दर्शन, चारित्र की वृद्धि होती है । । ४५३७।। यहाँ पर संयम में कुशील द्वारा पूजा से भी संयमी द्वारा किया हुआ अपमान श्रेष्ठ है, क्योंकि प्रथम कुशील द्वारा शील का नाश होता है और संयत द्वारा शील का नाश नहीं होता है। जैसे मेघ के बादल से व्यंतर (एक जाति के सर्प) का उपशम हुआ विष कुपित होता है, वैसे कुशील पुरुषों द्वारा उपशमित मुनियों का प्रमाद रूपी विष, कुशील संसर्ग रूपी मेघ बादल से पुनः कुपित होता है। इस कारण से धर्म में प्रीति और दृढ़ता वाले पापभीरुओं के साथ संगति करनी चाहिए। क्योंकि उनके प्रभाव से धर्म में मंद आदर वाला भी उद्यमशील बनता है। कहा है कि नवधम्मस्स पाएणं, धम्मे न रमइ मई । वह सो वि संजुत्तो, गोरिवाऽविधुरं धुरं । ।४५४१ ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only 193 www.jainelibrary.org.
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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