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श्री संवेगरंगशाला
परगण संक्रमण द्वार-अनुशास्ति द्वार-पैयावच्य की महिमा और मुनियों को भी मन, वचन और काया से प्रतिकुल वर्तन मत करना, परंतु अति सन्मान करना। इस तरह प्रवर्तिनी को भी निश्चय उनकी आज्ञा को अखंड पालकर ही सम्यग् अनुकूल बनना, परंतु अल्प भी कोपायमान मत होना। किसी कारण से जब यह कोपायमान हो तब भी मृगावती जैसे अपनी गुरुणी को खमाया था वैसे तुम्हें अपने दोषों की कबूलात पूर्वक प्रत्येक समय पर उनको खमाना चाहिए। क्योंकि हे साध्वियों! मोक्ष नगर में जाने के लिए तुम्हारे वास्ते यह उत्तम सार्थवाहिणी है, और तुम्हारी प्रमाद रूपी शत्रु की सेना को पराभव करने में समर्थ प्रतिसेना के समान है। तथा हित-शिक्षा रूपी अखंड दूध की धारा देने वाली गाय के समान है। इसी प्रकार अज्ञान से अंध जीवों के लिए अंजन शलाका के समान है ।।४५००।। इससे भ्रमरियों को मालती के पुष्प की कली समान, राज हंसनियों के कमलिनी के समान और पक्षियों के वन राजा के समान तुम्हारी यह प्रवर्तिनी को गुण रूपी पराग के लिए, शोभा के लिए और आश्रय के लिए सेवा करने योग्य है। तथा क्रीड़ा, क्लेश, विकथा और प्रमाद रूपी शत्रु-मोह सेना का पराभवकर हमेशा परलोक के कार्य में उद्यमी बनना, जिससे तुम्हारा जन्म पूर्णकर जीवन को सफल करना, और छोटे-बड़े भाई-बहनों के समान संयम योग की साधना में परस्पर सम्यक् सहायक होना. तथा मंद गति से चलना. प्रकट रूप में हँसना नहीं और मंद स्वर से बोलना. अथवा तम सारी प्रवत्ति मंद रूप में करना। आश्रम के बाहर एकाकी पैर भी नहीं रखना और श्री जिनमंदिर अथवा साधु की वसति में भी वृद्ध साध्वियों के साथ जाना। इस तरह आचार्य श्री प्रत्येक वर्ग को अलग-अलग हित-शिक्षा देकर उनके ही समक्ष सर्व को साधारण हित-शिक्षा दें कि-आज्ञा पालन में सर्व रक्त होने से तुमको बाल, वृद्धों से युक्त गच्छ में भक्ति और शक्ति पूर्वक परस्पर वैयावच्य में सदा उद्यमशील रहना। क्योंकि-स्वाध्याय, तप आदि सर्व में उसे मुख्य कहा है, सर्व गुण प्रतिपाती हैं जबकि वैयावच्य अप्रतिपाती है। भरत, बाहुबली और दशार कुल की वृद्धि करने वाला वसुदेव ये वैयावच्य के उदाहरण हैं। इसलिए साधुओं को सर्व प्रकार की सेवा से संतुष्ट रहना चाहिए।।४५०९।। वे दृष्टांत इस प्रकार से हैं :वैयावच्य की महिमा :
युद्ध करने में तत्पर, शत्रुओं का पराभव करने वाला, जो प्रचण्ड राजाओं के समूह का पराभव करके छह खण्ड पृथ्वी मण्डल को जीतने में समर्थ प्रताप वाला, अति रूपवती श्रेष्ठ चौसठ हजार रानियों से अत्यंत मनोहर, अनेक हाथी, घोड़े, पैदल तथा रथ युक्त, नौ निधान वाला, आँख ऊँची करने मात्र से सामंत राजा नमने वाले, अपने स्वार्थ की अपेक्षा बिना ही सहायता करते यक्षों वाला, जो चक्रवर्तीपना भारत में, पूर्व में भरत चक्री ने प्राप्त किया था। वह पूर्वजन्म के साधु महाराज की वैयावच्य करने का फल है। और प्रबल भुजा के बल से पृथ्वी के भार को वहन करने वाले, अनेक युद्धों में शरद के चंद्र समान निर्मल यश को प्राप्त करने वाले और शत्रुओं के मस्तक के छेदने में निर्दय पराक्रम वाले, चक्र को हाथ में धारण करने वाले, चक्री होने पर भी भरत को प्रचण्ड भुजा बल के निधान रूप बाहुबली का बल देखकर 'क्या यह बाहुबली चक्रवर्ती है? ऐसा संशय उत्पन्न हुआ था और जिसने दृष्टि युद्ध आदि युद्धों से देवों के समक्ष लीलामात्र में हराया था, वह भी उत्तरोत्तर श्रेष्ठ फल देने में कल्पवृक्ष समान उत्तम साधुओं के योग्य वैयावच्य करने की यह सब महिमा है। जो अपने रूप की सुंदरता से जग प्रसिद्ध कामदेव के अहंकार को जीतनेवाले, दशार कुल रूपी कुमुद को विकसित करने में कौमुदी के चंद्र समान और जहाँ तहाँ परिभ्रमण करते हुए भी वसुदेव को उस काल में ऊँचे स्तनवाले भाग से शोभती, नवयौवन से मनोहर, पूनम की रात्री के चंद्र समान मुखवाली, काम से पीड़ित अंगवाली, अत्यंत स्नेहवाली और मृग समान नेत्रवाली, विद्याधरों की पुत्रियाँ 'मैं प्रथम-मैं प्रथम' ऐसा बोलती विवाह किया, वह
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