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________________ श्री संवेगरंगशाला परगण संक्रमण द्वार-अनुशास्ति द्वार-वैयावच्य की नहिमा नये धर्म प्राप्त करने वाले की बुद्धि प्रायःकर धर्म में आदर नहीं करती, परंतु जैसे वृद्ध बैल के साथ जोड़ा हुआ नया बैल अव्याकुलता पूर्वक जुआ (धुरी) को वहन करता है, वैसे ही नया धर्मी भी वृद्धों की संगति से धर्म में रागी-स्थिर हो जाता है। शील गुण से महान पुरुषों के साथ में जो संसर्ग करता है, चतुर पुरुषों के साथ बात करता है वह आत्मा अपना हित करता है। इस तरह संगति के कारण पुरुष दोष और गुण को प्राप्त करता है। इसलिए प्रशस्त गुण वाले का आश्रय लेना चाहिए। प्रशस्त भाव वाले तुम परस्पर कान को कड़वा परंतु हितकर बोलना, क्योंकि कटु औषध के समान निश्चय परिणाम से वह सुंदर-हितकर होगा। अपने गच्छ में अथवा परगच्छ में किसी की पर-निंदा मत करना, और सदा पूज्यों की आशातना से मुक्त और पापभीरु बनना। एवं आत्मा को सर्वथा प्रयत्नपूर्वक इस तरह संस्कारी करना कि जिस तरह गुण से उत्पन्न हुई तुम्हारी कीर्ति सर्वत्र फैल जाए। 'ये साधु निर्मल शील वाले हैं, ये बहुत ज्ञानवान् हैं, न्यायी हैं, किसी को संताप नहीं करते हैं, क्रिया गुण में सम्यक् स्थिर हैं।' ऐसी उद्घोषणा धन्य पुरुषों की फैलती है। 'मैंने मार्ग के अन्जान को मार्ग दिखाने में रक्त, चक्षु रहित को चक्षु देने के समान, कर्मरूपी व्याधि से अति पीड़ित को वैद्य के समान, असहाय को सहायक और संसार रूपी कुएँ में गिरते हुए को बाहर निकालने के लिए हाथ का आलम्बन देने वाले गुणों से महान् गुरु तुमको दिया है और अब मैं गच्छ की देखभाल से सर्व प्रकार से मुक्त होता हूँ। इस आचार्य के श्रेष्ठ आश्रय को छोड़कर तुम्हें कदापि कहीं पर भी जाना योग्य नहीं है, फिर भी आज्ञा पालन में रक्त तुम्हें इनकी आज्ञा से यदि किसी समय पर कहीं गये हो तो भी पुण्य की खान इस गुरु को हृदय से मत छोड़ना। जैसे सुभट अपने स्वामी को, अंधा उसके साथ हाथ पकड़ने वाले को, और मुसाफिर सार्थपति को नहीं छोड़ता है, वैसे तुम्हें भी इस गुरु को नहीं छोड़ना। यह आचार्य यदि सारणा-वारणा आदि करे तो भी क्रोध मत करना। बुद्धिमान कौन हितस्वी मनुष्य के प्रति क्रोध करें? किसी समय पर उनका कड़वा भी कहा हुआ उसे अमृत समान मानते तुम कुलवधू के समान उनके प्रति विनय को मत छोड़ना।' इस कारण से शिष्य गुरु की इच्छा में आनंद मानने वाला और उनके प्रति रुचि रखने वाला, गुरु की दृष्टि पड़ते ही-इशारे मात्र से स्वेच्छाचार को मर्यादित करने वाला और गुरु की इच्छानुसार विनय वेष धारण करने वाला, कुलवधू के समान होता है। कार्य-कारण की विधि के जानकार यह गुरु किसी समय पर तुम्हारे भावि के लिए कृत्रिम अथवा सत्य भी क्रोध से चढ़ी हुई भयंकर भृकुटी वाले, अति भयजनक भाल तल वाले होकर भी तुमको उलाहना दे और निकाल दे तो भी 'यह गुरु ही हमारा शणगार है' ऐसा मानना और हृदय में ऐसा चिंतन करते तुम अतिशय दक्षतापूर्वक विनय करके उनको ही प्रसन्न करना। वह इस प्रकार चिंतन करेस्वामी को प्रसन्न करने में समर्थ उपाय अनेक प्रकार के हैं। उन सफल उपायों को सद्भावपूर्वक बार-बार अपने मन में चिंतन करना। उन भव्य जीवों अथवा सेवकों के जीवन को धिक्कार है कि-पास में रहे हुए मनुष्य प्रसन्न हों ऐसे स्वामी क्षणभर भी जिसके ऊपर क्रोध नहीं करते, अर्थात् गुरु जिसके प्रति हित करने के लिए क्रोध करते हैं, वे धन्य हैं। क्योंकि उसकी योग्यता हो तो ही गुरु महाराज उस पर क्रोधकर सुधारने की इच्छा करते हैं। जह सागरम्मि मीणा,संखोभं सागरस्स असहंता। निति तओ सुहकामी, निग्गयमेत्ता विणस्संति ।।४५६१।। तथा जैसे समुद्र में समुद्र के संक्षोभ (उपद्रवों) को नहीं सहन करने वाला-सुख की इच्छा वाला मगरमच्छ उसमें से निकल जाता है, तो वह निकलने मात्र से नाश होता है।।४५६१।। वैसे ही गच्छ रूपी समुद्र में गुरु की सारणा-वारणादि तरंगों से पराभव प्राप्त कर सुख की इच्छा वाले 194 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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