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श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार-सम्यक्त्व वामक छटा द्वार वाले हुए हैं, ऐसा आगम में सुना है। और सम्यक्त्व गुण से रहित देवलोक से भी च्यवन कर इस संसार में पृथ्वीकायादि में भी उत्पन्न हुए और वहाँ दीर्घकाल रहने का आगम में सुना जाता है। केवल अंतर्मुहूर्त भी यदि यह सम्यक्त्व किसी तरह स्पर्शित होता है तो अनादि संसार समुद्र निश्चय गोष्पद जितना अल्प बन जाता है, ऐसा मैं मानता हूँ। जिसको निश्चय सम्यक्त्व रूपी महाधन है वह पुरुष निर्धनी भी धनवान है। यदि धनवान केवल इस जन्म में सुखी है तो सम्यग् दृष्टि प्रत्येक जन्म में सुखी है। अतिचार रूपी रज से रहित निर्मल सम्यक्त्व रत्न जिसके मन मंदिर में प्रकाशित है वह जीव मिथ्यात्व रूपी अंधकार से पीड़ित कैसे हो सकता है? जिसके मन में सर्व अतिशयों का निमित्त सम्यक्त्व रूप मंत्र है, उस पुरुष को ठगने के लिए मोह पिशाच भी समर्थ नहीं है। जिसके मन रूपी आकाश तल में सम्यक्त्व रूपी सर्य प्रकाश करता है. उसके मन में मिथ्यात्व रूपी ज्योतिष चक्र प्रकट भी नहीं होता है। पाखंडियों रूपी दृष्टि विष सर्प द्वारा लगाया हुआ डंख जो सम्यक्त्व रूपी दिव्य मणि को धारण करता है उसे कुवासना रूप विष संक्रमण (चढ़ता) नहीं है।
इसलिए सर्व दुःखों का क्षय करने वाले सम्यक्त्व में प्रमाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि-वीर्य, तप, ज्ञान और चारित्र भी इस सम्यक्त्व में रहा है। जैसे नगर का द्वार, मुख की आँखें और वृक्ष का मूल है वैसे वीर्य, तप, ज्ञान और चारित्र का यह सम्यक्त्व द्वार, आँखें और मूल जानना। ज्ञानादि आत्मस्वभाव, प्रीति का विषयभूत माता, पितादि स्वजन और श्री अरिहंतादि के अनुराग में रक्त अर्थात् शास्त्रोक्त भावाभ्यास, सतताभ्यास और विषयाभ्यास अनुष्ठान वाला तूं श्री जैनशासन में धर्मानुराग अर्थात् उसमें हमेशा सद्भाव, प्रेम, सद्गुण और धर्म के अनुराग से तन्मय बनना। सब गुणों में मुख्य इस सम्यक्त्व महारत्न को प्राप्त करने से इस जगत में कोई अपूर्व प्रभाव हो जाता है। क्योंकि कहा है कि-'जिसको मेरुपर्वत के समान निश्चल और शंकादि दोषों से रहित यह सम्यक्त्व एक दिन का भी प्रकट हो जाये तो वह आत्मा नरक, तिर्यंच में नहीं गिरता है। चारित्र से भ्रष्ट वह भ्रष्ट नहीं है, परंतु जो सम्यक्त्व से भ्रष्ट है वही भ्रष्ट है, सम्यक्त्व से नहीं गिरने वाला संसार में परिभ्रमण नहीं करता। अविरति वाला भी शुद्ध सम्यक्त्व होने से श्री तीर्थंकर नाम कर्म का बंध करता है। जैसे कि हरिकुल के स्वामी श्रीकृष्ण महाराजा और श्रेणिक महाराजा विरति के अभाव में भी भविष्य काल में कल्याणकर तीर्थंकर होंगे। विशद्ध सम्यक्त्व वाला जीव कल्याण की परंपरा को प्राप्त करता है। सम्यक्त्व महारत्न जितना मूल्य
देव-दानव से युक्त तीनों लोक भी प्राप्त नहीं कर सकता। अरघट्ट यंत्र समान इस संसार में कौन जन्म नहीं लेता, परंतु तत्त्व से जगत में वही जन्म लेता है कि जिसने इस संसार में सम्यक्त्व रत्न को प्राप्त किया है। अर्थात् उसका ही जन्म सफल है। हे सुंदर मुनि! चिंतामणी और कल्पवृक्ष को भी जीतनेवाले सम्यक्त्व को प्राप्त कर उसकी रक्षा का प्रयत्न छोड़ना योग्य नहीं है। इस दुस्तर भव समुद्र में जो समकित रूप नाव को प्राप्त नहीं करता है, वह डूबता है, डूबा है और डूबेगा। और सम्यक्त्व रूपी नाव को प्राप्त कर भव्यात्मा दुस्तर भी संसार समुद्र को अल्पकाल में तिर जाता है, तिरता है और तिरेगा। इसलिए हे धीर साधु! जिसकी प्राप्ति के मनोहर स्वप्न भी दुर्लभ है उस सम्यक्त्व को प्राप्त कर आराधना में स्थिर मन वाला हो और प्रमाद को मत करना। अन्यथा प्रमाद में गिरे हुए तेरी यह प्रस्तुत आराधना निश्चय मार्ग से भ्रष्ट हुई नाव के समान 'तड़, तड़' आवाज करते टूट जायगी। इस तरह सम्यक्त्व नाम का छट्ठा अंतर द्वार कहा। अब श्री अरिहंत आदि छह की भक्ति का सातवाँ अंतर द्वार कहते हैं।।७५६९।। 1. जस्सं दिवसं पि एक्कं, सम्मत्तं निच्चलं जहा मेरू। संकाऽऽइदोसरहियं, न पडइ सो नरयतिरिएसु ।।७५५६।। 2. दंसणभट्टो भट्ठो, न हु भट्ठो होइ चरणपन्भट्ठो ।।७५६०पूर्वार्ध।।
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