________________
समाधि लाभ द्वार-सन्यक्ल्व नामक छठा द्वार
'श्री संवेगरंगशाला
तो शेष पदार्थों में क्या आशा रखें? प्रतिबंध बुद्धि को नाश करने वाला, अत्यंत कठोर बंधन है और संसार के सर्व दोषों का समूह है, इसलिए हे धीर! प्रतिबंध को छोड़ दो! पुनः हे महाशय! यदि तूं सर्वथा इसे छोड़ने में शक्तिमान नहीं हो तो अति प्रशस्त वस्तु में प्रतिबंध कर। क्योंकि तीर्थंकर में प्रतिबंध और सुविहित मुनिजन में प्रतिबंध, यह वर्तमान काल में सराग संयम वाले मुनियों को निश्चय प्रशस्त है।' अथवा शिव सुख साधक गुणों की साधना में हेतुभूत द्रव्यों में, शिव साधक गुणों की साधना में, अनुकूल क्षेत्र में, शिव साधक गुणों की साधना के अवसर रूप काल में, और शिव साधक गुण रूप भाव में प्रतिबंध कर। तत्त्व से तो प्रशस्त पदार्थों में प्रतिबंध करना, उसे भी केवल ज्ञान रूपी सूर्य के प्रकाश को अत्यंत रोकने वाला कहा है। इसी कारण जगद्गुरु श्री वीर परमात्मा में प्रतिबंध से युक्त श्री गौतम स्वामी चिरकाल उत्तम चारित्र को पालन करने वाले भी केवलज्ञान को प्राप्त नहीं कर सके। इसलिए भी देवानुप्रिय! इस संसार में यदि शुभ वस्तु में यह प्रतिबंध इस प्रकार का परिणाम वाला अर्थात् केवलज्ञान रोकने वाला है तो इससे क्या लाभ हुआ? जीव सुखों का अर्थी है और सुख प्रायः इस संसार में संयोग से होता है, इसलिए जीव सुख के लिए द्रव्यादि के साथ संयोग को चाहता है।
परंतु द्रव्य अनित्य होने से उसका नाश हमेशा चलता है। क्षेत्र भी सदा प्रीतिकर नहीं होता है, काल भी बदलता रहता है और भाव भी नित्य एक स्वभाव वाला नहीं है। किसी को भी उसे द्रव्यादि के साथ जो कोई भी संयोग पूर्व में हुआ है, वह वर्तमान काल में है और भविष्य में होगा वे सभी अंत में अवश्य वियोग वाले ही है। इस तरह द्रव्यादि के साथ का संयोग और अन्त में अवश्य वियोग वाला हो, तो द्रव्यादि में प्रतिबंध करने से कौन से गुण को प्राप्त करेगा? दूसरी बात यह है कि जीवद्रव्य आदि द्रव्यों का परस्पर अन्यत्व है और अन्य के आधीन जो सुख है वह परवश होने से असुख रूप ही है। इसलिए हे चित्त! यदि तूं प्रथम से ही पराधीन सुख में प्रतिबंध को नहीं करेगा, तो उसके वियोग से होने वाले दुःख को भी तूं प्राप्त नहीं करेगा। यहाँ मूढ़ात्मा संसार गत पदार्थ के समूह में जैसे-जैसे प्रतिबंध को करता है वैसे-वैसे गाढ़-अतिगाढ़ कर्मों का बंध करता है। इतना भी विचार नहीं करता कि जिस पदार्थ में प्रतिबंध करता हूँ, वह पदार्थ निश्चय विनाशी, असार और विचित्र संसार का हेतुभूत है। इसलिए यदि तूं आत्मा का हित चाहता है, तो भयंकर संसार से भय धारण कर। पूर्व में किये पापों से उद्विग्न हो। और प्रतिबंध का त्याग कर। जैसे-जैसे आसक्ति का त्याग होता है, वैसे-वैसे कर्मों का नाश होता है और जैसे-जैसे वह कर्म कम होते हैं, वैसे-वैसे मोक्ष नजदीक आता जाता है। इसलिए हे मुनिवर्य! आराधना में मन को लगाकर और सभी पाप के प्रतिबंध का सर्वथा त्याग कर नित्य आत्मारामी बन। इस तरह प्रतिबंध त्याग नामक पाँचवां अंतर द्वार कहा है। अब सम्यक्त्व संबंध से छट्ठा अंतर द्वार कहता हूँ ।।७५४१ ।। सम्यक्त्व नामक छठा द्वार :
अनंत भूतकाल में जो पूर्व में कदापि प्राप्त नहीं हुआ, जिसके प्रभाव से संसार महासमुद्र को छोटे से सरोवर के समान बिना प्रयास से तर सकता है। जिसके प्रभाव से मुक्ति की सुख रूप संपत्ति हस्त कमल में आती है। जो महान कल्याण के निधान का प्रवेश द्वार है और मिथ्यात्व रूपी प्रबल अग्नि से तपे हुए जीवों को जो अमृत के समान शांत करने वाला है। उस सम्यक्त्व को हे क्षपक मुनि! तूंने प्राप्त किया है। यह सम्यक्त्व प्राप्त करने से अब तूं भयंकर संसार के भय से डरना नहीं, क्योंकि इसकी प्राप्ति से संसार को जलांजलि दी है। और जीव का नरक में अति दीर्घकाल सम्यक्त्व सहित रहना वह भी श्रेष्ठ है, परंतु इससे रहित जीव का देवलोक में उत्पन्न होना वह भी अच्छा नहीं है। क्योंकि शुद्ध सम्यक्त्व के प्रभाव से नरक में से आकर कई जीव तीर्थंकर आदि लब्धि 1 तित्थयरे पडिबंधो सुविहिए जइजणे य। एसो पसत्थगो च्चिय सरागसंजमजईणऽज्ज ||७५२४।।
315
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org