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श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार-मान पाप स्थानक द्वार - बाहुबली का दृष्टांत
होते मान रूपी अग्नि से पूर्व में किये विद्यमान भी अपने गुणरूपी वन को जला देते हैं? ऐसे मान को धिक्कार है, धिक्कार है। और विपरीत धर्माचरण वाले तथा आरंभ - परिग्रह से भरे हुए स्वयं मूढ़ पापी मानी पुरुष अन्य मनुष्यों को भी मोह मूढ़ करके जीव समूह की हिंसा करते हैं । सदा शास्त्र विरुद्ध कर्मों को करते हैं और भी गर्व करते हैं कि इस जगत में धर्म के आधारभूत पालन करने वाले हम ही हैं।
शाता, रस और ऋद्धि गारव वाले, द्रव्य क्षेत्रादि में ममता करने वाले और अपनी-अपनी क्रिया के अनुरूप जिनमत की भी उत्सूत्र प्ररूपणा करने वाले, द्रव्य क्षेत्रादि के अनुरूप अपना बल-वीर्य आदि होने पर भी चरण-करण गुणों में यथाशक्ति उद्यम नहीं करते, अपवाद मार्ग में आसक्त, ऐसे लोगों से पूजित मानी पुरुष इस शासन में 'हम ही मुख्य हैं इस प्रकार अपने बड़प्पन और अभिमान से काल के अनुरूप क्रिया में रक्त संवेगी, गीतार्थ, श्रेष्ठ मुनिवर आदि की 'यह तो माया आदि में परायण - कपटी है' इस तरह लोगों के समक्ष निंदा करता है, और अपने आचार के अनुसार प्रवृत्ति करने वाला ममत्व से बद्ध पासत्था लोग को 'यह कपट से रहित है' ऐसा बोलकर उसकी प्रशंसा करते हैं और इस तरह अशुभ आचरण वाले वे ऐसा कठोर कर्म का बंध करते हैं कि जिससे अतीव कठोर दुःखों वाली संसार रूपी अटवी में बार-बार परिभ्रमण करते हैं। मनुष्य जैसे-जैसे मान करता है, वैसे-वैसे गुणों का नाश करता है और क्रमशः गुणों का नाश होने से उसे गुणों का अभाव हो जाता है। और गुण-संयोग से सर्वथा रहित पुरुष जगत में उत्तम वंश में जन्मा हुआ भी गुण रहित धनुष्य के समान इच्छित प्रयोजन की सिद्धि नहीं कर सकता है। इसलिए स्व पर उभय कार्यों का घातक और इस जन्म पर - जन्म में कठोर दुःखों को देने वाले मान का विवेकी पुरुष दूर से सर्वथा यत्नपूर्वक त्याग करते है। इसलिए हे सुंदर ! निर्दोष आराधना (मोक्ष संबंधी) की इच्छा करता है तो तूं भी मान को त्याग दें, क्योंकि प्रतिपक्ष का क्षय करने से स्वपक्ष की सिद्धि होती है, ऐसा कहा है। जैसे बुखार चले जाने से शरीर का श्रेष्ठ स्वास्थ्य प्रकट होता है, वैसे यह मान जाता है तब आत्मा का श्रेष्ठ स्वास्थ्य प्रकट होता है तथा उसी तरह ही आराधना रूपी पथ्य आत्मा को गुण करता है। सातवाँ पाप स्थानक मान के दोष से बाहुबली ने निश्चय ही क्लेश प्राप्त किया और उससे निवृत्त होते ही उसी समय केवल ज्ञान प्राप्त किया । । ५९७१ । । यह इस प्रकार है :
बाहुबली का दृष्टांत
तक्षशिला नामक नगर के अंदर इक्ष्वाकु कुल में जन्मे हुए जगत् प्रसिद्ध बाहुबली यथार्थ नाम वाला श्री ऋषभदेव का पुत्र राजा था । अट्ठानवें छोटे भाईयों ने दीक्षा लेने के बाद भरतचक्री की सेवा को नहीं स्वीकारने से भरत ने बाहुबली को इस प्रकार कहा- राज्य को शीघ्र छोड़ दो अथवा आज्ञा पालन कर अथवा अभी ही युद्ध में तैयार होकर सन्मुख आ जाओ। यह सुनकर असाधारण भुजा बल से अन्य सुभटों को जीतने वाला बाहुबली ने भरत चक्रवर्ती के साथ युद्ध प्रारंभ किया । वहाँ मदोन्मत्त हाथी मरने लगे, योद्धाओं का विशेष रूप में नाश होने लगा, कायर पुरुष भागने लगे, रथों के समूह टूट रहे थे, योगीनिओं का समूह आ रहा था, फैलता हुआ खून चारों तरफ दिख रहा था, मानो भयंकर यम का घर हो, ऐसा दिखता था । महान भय का एक कारण, बाणों से आच्छादित भूतल वाला, हाथी के झरते मदरूपी बादल वाला, सूर्य को चिंता कराने वाला अथवा शूरवीर के बाण फेंकने की प्रवृत्ति वाला, मांस भक्षण के लिए घूमते तुष्ट याचकों वाला और अनेक लोगों की मृत्यु रण मैदान में देखकर एक दयारस से युक्त मन वाला महायशस्वी बाहुबली बोला - हे भरत ! इन निरपराधी लोगों को मारने से क्या लाभ है? वैर परस्पर हम दोनों का है, अतः हम और आप लड़ेंगे। 1 भरत ने स्वीकार किया, उसके बाद 1. अन्य कथानकों में इन्द्र द्वारा कहने का कथन है।
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