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________________ समाधि लाभ द्वार-माया पाप स्थानक द्वार श्री संवेगरंगशाला वे दोनों लड़ने लगे, इसमें बाहुबली ने भरत को सर्व प्रकार से हराया। इससे भरत चक्री विचार करने लगा किक्या मैं चक्री नहीं हूँ? क्योंकि सामान्य मनुष्य के समान में सर्व प्रकार से इसके भुजा बल के द्वारा हार गया हूँ। ऐसी चिंता करते भरत के करकमल में चमकते बिजली के समान चंचल और यम के प्रचंड दंड के समान उसके दख सके ऐसा दड रत्न आ गया। तब ऐसा देखकर, बाहुबली की, क्रोधाग्नि बढ़ गई। क्या दंड सहित इसको चकनाचूर कर दूं? इस तरह एक क्षण विचार करके अल्प शुद्ध बुद्धि प्रकट हुई और विचार करने लगा कि-विषय षय के अनुराग को धिक्कार है कि जिसके कारण जीवात्मा मित्र, स्वजन और बंधुओं को भी तृण तुल्य भी नहीं गिनते, तथा अकार्य को करने के लिए भी उद्यम करते हैं। इससे विषय वासना में वज्राग्नि लगे। ऐसा चिंतन करते उसे वैराग्य हुआ और उस महात्मा ने स्वयंमेव लोच करके दीक्षा स्वीकार की। फिर 'प्रभु के पास गया तो मैं छोटे भाईयों को वंदन किस तरह करूँगा? ऐसे अभिमान दोष के कारण ध्यान में खड़ा रहा और 'केवल ज्ञान होने के बाद वहाँ जाऊंगा।' ऐसी प्रतिज्ञा करके निराहार खड़ा रहा। एक साल बाद वह कृश हो गया। एक साल के अंत में श्री ऋषभदेव ने ब्राह्मी और सुंदरी दो साध्वियों को भेजा। साध्वियों ने आकर कहा कि-हे भाई! परम पिता परमात्मा ने फरमाया है कि-'क्या हाथी के ऊपर चढ़ने से कभी केवल ज्ञान होता है?' ये शब्द सुनने के पश्चात् जब उस पर सम्यग् रूप से विचार करने लगे तब 'मान यही हाथी है' ऐसा जानकर शुद्ध भाव प्रकट हुए और उस मान को छोड़कर प्रभु के चरणों में जाने के लिए पैर उठाया, उसी समय श्रेष्ठ केवल ज्ञान की प्राप्ति होने से पूर्ण प्रतिज्ञा वाले बनें। इस तरह हे महात्मा क्षपक! मान कषाय की प्रवृत्ति और विरति से होने वाले दोष, गुणों का शुद्ध बुद्धि से विचारकर तूं इस आराधना की साधनाकर दर्शन, ज्ञान सहित श्रेष्ठ चारित्र गुण से युक्त अनंत शिव सुख को प्राप्त कर। इस तरह मान विषयक सातवाँ पाप स्थानक कहा है. अब माया विषयक आठवाँ पाप स्थानक को कछ अल्पमात्र कहते हैं। (८) माया पाप स्थानक द्वार :- माया उद्वेग करने वाली है इसकी धर्म शास्त्रों में निंदा की है, वह पाप की उत्पत्ति रूप है और धर्म का क्षय करने वाली है। माया गुणों की हानिकारक है, दोषों को स्पष्ट रूप में बढ़ाने वाली है और विवेक रूपी चंद्र बिंब को गलाने वाली एक राहु ग्रह के जैसी है। ज्ञानाभ्यास किया, दर्शन का आचरण किया, चारित्र पालन लिया और अति चिरकाल तप भी किया परंतु यदि माया है तो वह सर्व नष्ट हो जाता है। इससे परलोक की तो बात तो दूर रही, परंतु मायावी मनुष्य यद्यपि अपराधकारी नहीं होता है फिर भी इस जन्म में ही सर्प के समान भयजनक दिखता है। मनुष्य जैसे-जैसे माया करता है, वैसे-वैसे लोक में अविश्वास प्रकट करता है और अविश्वास के कारण आकड़े की रुई से भी हल्का बन जाता है ।।६०००।। इसलिए हे सुंदर! इस विषय का विचारकर। माया का सर्वथा त्याग कर, क्योंकि माया के त्याग से निर्दोष शुद्ध सरलता गुण प्रकट होता है। सरलता से पुरुष जहाँ-जहाँ जाता है वहाँ-वहाँ लोग उसकी 'यह सज्जन है, सरल स्वभावी है' इस प्रकार प्रशंसा करते हैं। मनुष्यों की प्रशंसा को प्राप्त करने से शीघ्रता से गुण प्रकट होते हैं, इसलिए गुण समूह के अर्थी को माया त्याग करने में प्रयत्न करना ही योग्य है। प्रथम मधुर फिर खट्टी छाश के समान प्रथम मधुरता बताकर फिर विकार दिखाने वाला मायावी मनुष्य मधुरता को छोड़ने से जगत को रुचिकर नहीं होता यहाँ पर आठवें पाप स्थानक के दोष में पंडरा साध्वी का दृष्टांत है अथवा दोष-गुण में यथाक्रम दो वणिक पुत्रों का भी दृष्टांत है ।।६००५ ।। वह इस प्रकार है : 1. अन्य कथानकों में चक्रवर्ती द्वारा चक्ररत्न को याद कर चक्ररत्न फेंकने का वर्णन आता है। 255 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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