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श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार-माया पाप स्थानक द्वार-साध्वी पंडरा आर्या की कथा-दो वणिक पुत्र की कथा
साध्वी पंडरा आर्या की कथा एक शहर में धनवान उत्तम श्रावक के विशाल कुल में एक पुत्री ने जन्म लिया, और उसने संसार से वैराग्य प्राप्तकर दीक्षा स्वीकार की, उत्तम साध्वियों के साथ रहती हुई भी वह ग्रीष्म ऋतु में मलपरीषह को सहन नहीं कर सकी। अतः शरीर और वस्त्रों को साफ सुथरा करती थी, इससे साध्वी उसको प्रेरणा करती कि ऐसा करना साध्वी के लिए योग्य नहीं है। ऐसा सहन नहीं करने से वह अलग उपाश्रय में रहने लगी। वहाँ उज्ज्वल वस्त्र और शरीर साफ रखने से लोग में 'पंडरा आर्या' इस नाम से प्रसिद्ध हुई, और वह अपनी पूजा के लिए विद्या के बल से नगर के लोगों को आश्चर्यचकित तथा भयभीत करती थी, परंतु अंतिम उम्र में किसी प्रकार परम वैराग्य को प्राप्त कर उसने सद्गुरुदेव समक्ष पूर्व के दुराचारों का प्रायश्चित्त करके, संघ समक्ष अनशन स्वीकार किया और शुभ ध्यान में रहकर भी केवल अपने पूजा सत्कार के लिए मंत्र प्रयोग से लोगों को आकर्षण करने लगी। नगर के लोग हमेशा उसके पास आते देखकर गुरु ने कहा कि-हे महानुभाव! तुझे मंत्र का प्रयोग करना योग्य नहीं है। गुरु के शब्दों से उसने 'मिच्छा मि दुक्कडं देकर पुनः नहीं करूँगी। आपने जो प्रेरणा की वह बहुत अच्छा किया।' इस तरह उत्तर दिया। फिर पुनः एक दिन एकांत में नहीं रह सकने से उसने फिर लोगों को आकर्षण किया
और गुरु ने उसका निषेध किया। इस तरह जब चार बार निषेध किया तब उसने माया युक्त कहा कि-हे भगवंत! मैं कुछ भी विद्या बल का प्रयोग नहीं करती हूँ, किन्तु ये लोग स्वयमेव आते हैं। इस तरह उसने माया के आधीन बनकर आराधना का फल गुमा दिया और अंतिम समय में मरकर सौधर्म कल्प में ऐरावण नामक देव की देवी रूप बनी। इस तरह माया के दोष में पंडरा साध्वी का दृष्टांत कहा है। अब दोष और गुण दोनों का पूर्व में कहा था उन वणिकों का दृष्टांत कहता हूँ।
दो वणिक पुत्र की कथा पश्चिम विदेह में दो व्यापारी मित्र रहते थे। उसमें एक मायावी और दूसरा सरलता युक्त था, इस तरह दोनों चिरकाल व्यापार करते मर गये और भरत क्षेत्र में सरलता वाले जीव ने युगलिक रूप में जन्म लिया और दूसरा मायावी हाथी रूप में उत्पन्न हुआ। किसी समय परस्पर दर्शन हुआ, फिर मायावश बंध किये आभियोगिक कर्म के उदय से हाथी ने पूर्व संस्कार की प्रीति से उस युगलिक दंपति को कंधे के ऊपर बैठाकर विलास करवाया। इस तरह मायावी का अनर्थ और उससे विपरीत सरलता के गुण को देखकर हे क्षपक मुनि! माया रहित बनकर तूं सम्यग् आराधना को प्राप्त कर। इस तरह आठवाँ पाप स्थानक अल्पमात्र कहा है।
अब लोभ के स्वरूप को बताने में परायण नौवाँ पाप स्थानक को कहते हैं।
(७) लोभ पाप स्थानक द्वार :- जैसे पूर्व में न हो, फिर भी वर्षा के बादल प्रकट होते हैं और प्रकट होने के बाद बढ़ते हैं, वैसे पुरुष में लोभ न हो तो प्रकट होता है तथा हर समय बढ़ता जाता है और लोभ के बढ़ते पुरुष कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य के विचार बिना का हो जाता है, मृत्यु को कुछ भी नहीं गिनता, महासाहस को करता है। लोभ से मनुष्य पर्वत की गुफा में और समुद्र की गहराई में प्रवेश करता है तथा भयंकर युद्ध भूमि में भी जाता है तथा प्रिय स्वजनों को तथा अपने प्राणों का भी त्याग करता है। तथा लोभी को उत्तरोत्तर इच्छित धन की अत्यंत प्राप्ति हो जाती है, फिर भी तृष्णा ही बढ़ती है तथा स्वप्न में भी तृप्ति नहीं होती है। लोभ अखंड व्याधि है, स्वयंभूरमण समुद्र के समान किसी तरह शांत नहीं होने वाला है, जैसे ईधन से अग्नि बढ़ती है, वैसे लाभ रूपी ईंधन से अत्यंत वृद्धि को प्राप्त करता है। लोभ सर्व विनाशक है, लोभ परिवार में मनोभेद करने वाला
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