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________________ समाधि लाभ द्वार-लोभ पाप स्थानक द्वार-कपिल ब्राह्मण की कथा श्री संवेगरंगशाला है और लोभ सर्व आपत्तियों वाला दुर्गति में जाने के लिए राजमार्ग है। इसके द्वारा घोर पापों को बढ़ाकर उसके प्रायश्चित्त किये बिना का मनुष्य अति चिरकाल तक संसार रूपी भयंकर अटवी में बार-बार परिभ्रमण करता है। और जो महात्मा लोभ के विपाक को जानकर विवेक से उससे विपरीत चलता है, अर्थात संतोष भाव को रखता है वह उभय लोक में सुख का पात्र बनता है। इस पाप स्थानक में कपिल ब्राह्मण दृष्टांत रूप है कि जो दो मासा की इच्छा करने वाला भी करोड़ सुवर्ण मोहर लेने की इच्छा वाला हुआ और उसके प्रतिपक्ष-संतोष में भी समग्र स्थूल और सूक्ष्म भी लोभ के अंश को नाश करने वाला और केवल ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त करने वाला उस कपिल का ही दृष्टांत है ।।६०३२।। वह इस प्रकार : कपिल ब्राह्मण की कथा कौशाम्बी नगर में यशोदा नामक ब्राह्मणी थी, उसको कपिल नाम का पुत्र था, वह छोटा था उस समय उसके पिता की मृत्यु हुई। एक समय पति के समान उम्र वाला दूसरा वैभव संपन्न ब्राह्मण को देखकर पति का स्मरण हो आया इससे वह रोने लगी, तब माता को कपिल ने पूछा कि-माता! आप क्यों रो रही हो? उसने कहा कि-हे पुत्र! इस जीवन में मुझे बहुत रोना है। उसने कहा-किसलिए? माता ने कहा कि-हे पुत्र! जितनी संपतियाँ इस ब्राह्मण के पास हैं उतनी संपतियाँ तेरे पिता के पास थीं, परंतु तेरे जन्म के बाद वह सब संपत्तियाँ नष्ट हो गयी हैं। कपिल ने कहा कि-कौन से गुण द्वारा मेरे पिता ने धन प्राप्त किया था। उसने कहा कि उन्होंने वेद की कुशलता से धन प्राप्त किया था। प्रतिकार करने की इच्छा रूपी रोषपर्वक कपिल ने कहा कि मैं भी वैसा अभ्यास करूँगा। माता ने कहा-श्रावस्ती में तेरे पिता के मित्र इन्द्रदत्त नाम के उपाध्याय के पास जाकर इस प्रकार का अभ्यास कर। हे पुत्र! यहाँ पर तुझे सम्यक् प्रकार से अध्ययन कराने वाले कोई नहीं हैं। उसने माता की आज्ञा स्वीकार की और वह श्रावस्ती पुरी में इन्द्रदत्त उपाध्याय के पास गया, उसने आने का कारण पूछा? तब उसने सारा वृत्तांत कहा। अपने प्रिय मित्र का पुत्र जानकर उपाध्याय ने उसे आलिंगन किया और कहा कि वत्स! सांगोपांग चारों वेदों का अभ्यास कर, परंतु इस नगर में समृद्धशाली धन सेठ को तूं भोजन के लिए प्रार्थना कर। सेठ को प्रार्थना की, सेठ ने भी आदरपूर्वक अपनी एक दासी से कहा कि इस विद्यार्थी को प्रतिदिन भोजन करवाना। इस तरह भोजन की हमेशा व्यवस्थाकर वह वेद का अभ्यास करने लगा। किंत. आदर से. प्रतिदिन भोजन देने से और परिचय से उसे दासी के ऊपर अत्यंत राग हो गया। एक दिन उस दासी ने उससे कहा कि-कल उत्सव का दिन होने से विविध सुंदर श्रृंगार करके अपने-अपने कामुक द्वारा भेंट दिये विशिष्ट वस्त्रादि से रमणीय नगर की रमणियाँ कामदेव की पूजा करने जायेंगी और उनके बीच में खराब कपड़े वाली, मुझे देखकर सखी हँसेंगी, इसलिए हे प्रियतम! आपको मैं प्रार्थना करती हूँ कि ऐसा कार्य करो कि जिससे मैं हँसी का पात्र न बनें। ऐसा सुनकर कपिल उससे दुःखी हुआ, रात्री को निद्रा खत्म होते ही दासी ने पुनः उससे कहा-हे प्रिये! संताप को छोड़ो, आप राजा के पास जाओ, जो ब्राह्मण राजा को प्रथम जागृत करता है, उसे हमेशा दो मासा सोना देकर सत्कार करता है। यह सुनकर रात्री के समय का विचार किये बिना ही कपिल घर से निकल गया, इससे जाते हुए उसे कोतवाल ने 'यह चोर है' ऐसा मानकर पकड़ लिया और प्रभात में राजा को सौंपा। आकृति से उसके हृदय को जानने में कुशल राजा ने यह निर्दोष है ऐसा जानकर पूछा कि-हे भद्र! तूं कौन है? उसने भी अपना सारा वृत्तांत मूल से लेकर कहा, इससे करुणा वाले राजा ने कहा किहे भद्र! जो माँगेगा, उसे मैं दूंगा। कपिल ने कहा कि-हे देव! एकांत में विचार करके माँगूंगा, राजा ने स्वीकार किया। फिर वह एकांत में बैठकर विचार करने लगा कि-दो मासा सुवर्ण से मेरा कुछ भी नहीं होने वाला है, 257 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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