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________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-प्रथम अनुशास्ति द्वार-प्रेन पाप स्थानक द्वार दस सोना मोहर की याचना करूँ, परंतु उससे क्या होगा, केवल कपड़े ही बनेंगे? अतः बीस सुवर्ण मोहर की माँग करूँ अथवा उस बीस मोहर से आभूषण भी नहीं बनेंगे, इसलिए सौ मोहर माँगूंगा तो अच्छा रहेगा। इतने में उसका क्या होगा और मेरा भी क्या होगा? इससे तो हजार माँगें, परंतु इतने से भी क्या जीवन का निर्वाह हो जायगा? इससे अच्छा है कि दस हजार मोहर की याचना करूँ, इस तरह करोड़ों मोहर की याचना की भावना हुई, और इस तरह उत्तरोत्तर बढ़ती प्रचंड धन की इच्छा से मूल इच्छा से अत्यधिक बढ़ जाने से उसने इस प्रकार विचार किया। जहा लाभो तहा लोभो लाभाल्लोभो पवड्ढइ। दो मासकयं कज्जं, कोडीए वि न निट्ठियं ।।६०५९।। जैसे लाभ है वैसे लोभ होता है, इस तरह लाभ से लोभ बढ़ता है, दो मासा से कार्य करने के लिए यहाँ आया था परंतु अब करोड़ से भी इच्छा पूर्ण नहीं हुई। अरे! लोभ की चेष्टा दुष्ट से भी दुष्ट है। ऐसा विचार करते उसने पूर्व जन्म में दीक्षा ली थी वह जाति स्मरण ज्ञान होने से संवेग प्राप्त किया और दीक्षा अंगीकार कर राजा के पास गया, राजा ने पूछा कि-हे भद्र! इस विषय में तूंन क्या विचार किया? कपिल ने करोड़ सोना मोहर की इच्छा का अपना व्यतिकर कहा। राजा ने कहा कि-करोड़ मुहर भी दूँगा इसमें कोई संदेह नहीं है। 'अब मुझे परिग्रह से कोई प्रयोजन नहीं है।' ऐसा कहकर कपिल राजमहल से निकल गया और चारित्र की आराधना कर केवल ज्ञान प्राप्त किया। इस तरह हे सुंदर! दुर्जन भी लोभ शत्रु को संतोष रूपी तीक्ष्ण तलवार से जीतकर निश्चय तूं आत्मा की निर्वृत्ति-मुक्ति को प्राप्त कर। इस तरह लोभ नाम का नौवाँ पाप स्थानक कहा है। अब प्रेम (राग) नामक दसवाँ पाप स्थानक भी सम्यग् रूप से कहते हैं। (१०) प्रेम (राग) पाप स्थानक द्वार :- इस शासन में अत्यंत लोभ और माया रूपी आसक्ति के केवल आत्म परिणाम को ही श्री जिनेश्वर भगवंतों ने प्रेम अथवा राग कहा है। प्रेम अर्थात् निश्चय से पुरुष के शरीर के लिए अग्नि बिना का भयंकर जलन है, विष बिना की प्रकट हुई मूर्छा है और मंत्र-तंत्र से भी असाध्य ग्रह या भूत-प्रेत का आवेश है। अखंड नेत्र, कान आदि होने पर भी निर्बल है अर्थात् प्रेम के कारण आँखें होने पर भी अंधा और कान होने पर भी बहरा है, परवश है और महान् व्याकुल है अहो! ऐसे प्रेम को धिक्कार है। तथा ज्वर के समान प्रेम (राग) से शरीर में उद्वर्तन, दुर्बलता, परिताप, कंपन, निद्रा का अभाव, बार-बार उबासी और दृष्टि की अप्रसन्नता होती है। मच्र्छा प्रलाप करना. उद्वेग, और लम्बे उष्ण निश्वास आते हैं। इस तरह ज्वर के सदृश राग में अल्प भी लक्षण भेद नहीं है। राग के कारण से कुलीन मनुष्य भी नहीं चिंतन करने योग्य भी चिंतन करता है तथा हमेशा असत्य बोलता है, नहीं देखने योग्य देखता है, नहीं स्पर्श करने योग्य का स्पर्श भी करता है, अभक्ष्य को खाता है, नहीं पीने योग्य को पीता है, नहीं जाने योग्य स्थान में जाता है और अकार्य को भी करता है। और इस संसार में जीवों को विडम्बनकारी राग ही न हो तो अशुचिमल से भरी हुई स्त्री के शरीर से कौन राग करे? पंडित पुरुषों ने अशुचि, दुर्गंध बीभत्स रूप वाली स्त्री को जानकर जिसका त्याग किया है, उसके साथ में जो मूढ़ात्मा राग करता है, तो दुःख की बात है कि वह किसमें राग नहीं करता है? लज्जाकारी मानकर लोगों में निश्चय अनिष्ट पापरूप होने से जो ढंकने में आता है वही अंग उसको रम्य लगता है, तो आश्चर्य है कि उसे जहर भी मधुर लगता है। मरते समय स्त्री उच्छ्वास लेती है, श्वास छोड़ती है, नेत्र बंद करती है और अशक्त बनती है, तब उस रागी को भी वैसा ही करती है, फिर भी रागी को वह शरीर रमणीय लगता है ।।६०७६ ।। 258 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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