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श्री संवेगरंगशाला
परिकर्म द्वार-काल परिज्ञान द्वार का संवर-नियम नहीं किया हो, जयणा से रहित वस्त्रादि का प्रक्षालन किया हों इत्यादि सर्व की सम्यक् पूर्वक आलोचना ले। पौषध व्रत में संथारा, स्थंडिल आदि पडिलेहन आदि जो नहीं किया हो या अविधि से किया इत्यादि तथा पौषध का सम्यक् पूर्वक पालन नहीं किया हो उसकी भी प्रकट रूप से आलोचना ले। अतिथि संविभाग व्रत में साधु, साध्वी को अशुद्ध आहार पानी दिया और शुद्ध कल्प्य आदि उत्तम आहार पानी आदि होते हुए भी नहीं दिया उसकी भी आलोचना स्वीकार करें।
धार्मिक मनुष्यों को जो बन सके वैसे अमुक अभिग्रह को अवश्य ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अभिग्रह के बिना रहना उसे योग्य नहीं है। फिर भी शक्य अभिग्रह स्वीकार नहीं किया, अथवा स्वीकार किये अभिग्रह का प्रमाद से खण्डन हुआ हो तो उसकी भी आलोचना ले। यह आलोचना करने रूप अतिचार कहा है। इस तरह देश विरति के अतिचारों की आलोचना करने के बाद तप-वीर्य दर्शन संबंधी लगे हुए अतिचारों की भी निश्चित रूप से साधु के समान आलोचना स्वीकार करें तथा साधु, साध्वी वर्ग में ग्लान के लिए औषध की गवेषणा नहीं की या श्री जिनमंदिर में यदि प्रमार्जन-देखभाल आदि नहीं किया हो, श्री जिनमंदिर में यदि शयन किया, तथा खान-पान किया अथवा हाथ पैर आदि धोये हों, उन सबकी आलोचना लेनी चाहिए। तथा जिनमंदिर में पान भक्षण, थूक, कफ, श्लेष्म और शरीर का मैल डालना इत्यादि कार्य किया हो तथा वहाँ देनदार आदि किसी को पकड़ा हो अथवा बाल देखना, जूं निकालना, कंघी करना, और श्री जिनमंदिर में अनुचित आसन लगाना, असभ्यता से बैठना, स्त्री कथा, भक्त कथा आदि विकथा की हो, उस सबकी श्रीजिनभक्ति में तत्पर गृहस्थ को प्रकट रूप से आलोचना लेनी चाहिए ।।३०५०।।
तथा राग आदि के कारण किसी प्रकार से भी देव द्रव्य से ही आजीविका चलाई हो, या नाश होते देव द्रव्य की उपेक्षा की हो, श्री अरिहंत परमात्मा आदि की जो कोई भी अवज्ञा आशातना की हो, उस सब की भी आत्म शुद्धि करने के लिए सम्यग् रूप से निवेदन कर आलोचना ले। तथा धर्मी आत्माओं की हमेशा प्रशंसा आदि करणीय नहीं किया और ईर्षा-मत्सर रखा, दोष जाहिर करना इत्यादि अकरणीय किया हो, उसकी भी सम्यग् आलोचना लेनी चाहिए। अधिक क्या कहें? जो कुछ भी, कभी भी जिनागम से विरुद्ध कार्य किया हो, करने योग्य को नहीं किया हो अथवा वह करते हुए भी सम्यग् रूप से नहीं किया हो। श्री जिनेश्वर के वचन में श्रद्धा नहीं की और जो विपरीत प्ररूपणा (कथन) किया हो। उन सबकी भव्य आत्मा को सम्यग् रूप से आलोचना लेनी चाहिए।
इस तरह छट्ठा गृहस्थ संबंधी आलोचना दान नाम का द्वार जानना। अब आयुष्य परिज्ञान द्वार को अल्पमात्र कहते हैं ।।३०५४।। काल परिज्ञान द्वार :
इस तरह कथनानुसार विधि से आलोचना देने के बाद उसमें कोई गृहस्थ समग्र आराधना करने में सशक्त हो अथवा कोई अशक्त भी हो, उसमें सशक्त भी कोई निरोगी शरीर वाला अथवा कोई रोगी भी हो, इस तरह अशक्त भी दो प्रकार का होता है। उसमें अशक्त या सशक्त यदि मृत्युकाल के नजदीक पहुँचा हो, वह तो पूर्व कथनानुसार विधि से शीघ्र भक्त परीक्षा-अनशन को स्वीकार करें, और अन्य को मृत्यु के नजदीक या दूर जानकर उस काल के उचित हो, वह भक्त परीक्षा आदि करना योग्य गिना जाता है। इसमें मृत्यु नजदीक है अथवा लम्बे काल में मृत्यु होगी, यह तो यद्यपि श्री सर्वज्ञ परमात्मा के बिना सम्यग् रूप से नहीं जान सकते हैं। इस दुषमकाल में तो विशेषतया कोई भी नहीं जान सकता है। फिर भी उसको जानने के लिए उस विषय के शास्त्रों
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