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________________ परिवर्म द्वार-आलोचना द्वार श्री संवेगरंगशाला अग्नि तो पानी होने पर प्रकट नहीं होती और चन्द्र भी बादल से ढक जाने से नहीं दिखता है। परंतु हे प्रभु! आप तो सदा सर्वत्र प्रकाश को करते हैं, और अत्यन्त मनोहर भी पूनम का चन्द्र सूर्य विकासी कमल के वनों को आनंद नहीं देता है, किन्तु आप तो हे भगवंत! महाप्रशम आदि श्रेष्ठ गुणों के योग से सर्व जीवराशि को भी परम सन्तोषकारी होते हैं। अधिक क्या कहूँ? आज मैंने स्वामी का-गुरु का सच्चा सन्मान किया है, आज ही मेरी भवितव्यता अनुकूल हुई, आज मेरी वृद्धि हुई और आज सारे उत्सवों का मिलन हुआ, आज का दिन भी मेरा कृतार्थ हुआ और आज ही प्रभात मंगलमय बना, आज ही चित्त में आनंद हुआ, आज ही परम बंधु श्री अरिहंत देव का संबंध हुआ, आज ही मेरा जन्म कृतार्थ हुआ, आज ही मेरे नेत्र सफल हुए, आज ही मेरे इच्छित कार्यों की सम्यक् प्राप्ति हुई, आज ही मेरी पुण्य राशि सफल हुई, और आज ही लक्ष्मी ने वांछारहित सद्भावनापूर्वक मेरे सामने देखा, क्योंकि-हे पापरज को नाश करने वाले मुनीन्द्र! मैं ने आज अत्यन्त पुण्योदय से प्राप्त होनेवाले निष्पापमय आप श्री के चरणकमल को प्राप्त किये हैं। इस तरह सुस्थित घटना नामक यह पाँचवां अंतर द्वार कहा। अब छट्ठा आलोचना द्वार कहते हैं ।।३०२७।। आलोचना द्वार : सद्गुरु के कहे अनुसार आराधना करने में उद्यमशील बना महा सात्त्विक वह उत्तम श्रावक दुर्ध्यान के आधीन बनकर ऐसा चिंतन नहीं करे कि-मैंने बार-बार, अनेकशः अनेक सद्गुरुओं के पास आलोचना भी ले ली और प्रायश्चित्त भी पूरे किये, सारी क्रियाओं में जयणापूर्वक आचरण किया, अब मुझे कुछ अल्प भी आलोचना योग्य नहीं है, ऐसा चिन्तन न करें। परंतु महा मुश्किल से समझ में आये ऐसी सूक्ष्म अतिचार की भी संशुद्धि के लिए उस समय पर एक चारित्र के अतिचारों के उद्देश्य से आलोचना दी जाती है। ज्ञान, दर्शन, तप और वीर्य। इन चार आचारों की आलोचना तो साधु के समान पूर्व में कहे अनुसार विधि से दी जाती है। इसलिए देश चारित्री श्रावक प्रथम व्रत में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु के प्रत्येक और अनंतकाय रूप दो प्रकार की वनस्पति के, तथा दो, तीन चार पांच इन्द्रिय वाले जीवों की विराधना के अतिचार को कहकर सनाने चाहिए। उसमें पृथ्वी आदि पाँच को प्रमाद दोष से किसी तरह उसकी सम्यग् जयणा नहीं की, उसे शास्त्र विधि से आलोचना करें। और दो, तीन, चार, पाँच इन्द्रिय वाले जीवों को परिताप-दुःख आदि देने से जो अतिचार या व्रत का भंग हुआ हो, उसे भी हित का अर्थी प्रकट रूप में निवेदन करें। मृषावाद विरमण में अभ्याख्यान आदि के, अदत्तादान (चोरी) विरमण दृष्टि वंचन आदि का, चौथे व्रत में (स्त्रियों को पुरुष के समान) स्वप्न में भी विजाति के साथ क्रीड़ा या अंग स्पर्श आदि तथा स्वपत्नी के सिवाय अन्य स्त्री के साथ हँसी अथवा गुप्त अंग का स्पर्श आदि, एवं विवाह, प्रेम करना, इत्यादि जो कुछ हुआ हो उन सब अतिचार की आलोचना लेनी चाहिए, तथा धन धान्यादि नौ प्रकार के परिग्रह प्रमाण में लगे हुए अतिचार को, और दिशि परिमाण में, प्रमाण से अधिक भूमि में स्वयं जाने से अथवा दूसरे को भेजने से जिस क्षेत्रादि का उल्लंघन किया हो उसकी सम्यग् रूप से आलोचना करनी। उपभोग परिभोग में, अनंतकाय, बहुबीज आदि के भोजन से लगे हुए अतिचारों को तथा कर्मादानों में अंगार कर्म आदि पन्द्रह कर्मदानों की आलोचना करनी। अनर्थ दण्ड में तेल आदि की रक्षा में किया हुआ प्रमाद अथवा पाँच प्रकार का, और पापोपदेश, हिंसक शस्त्रादि प्रदान, तथा जो दुर्ध्यान किया हो, उसकी सम्यक् प्रकार से आलोचना करनी। सामायिक व्रत में सचित्तादि स्पर्श आदि हुआ हो, मन, वचन, काया से हुए प्रणिधान आदि हुआ हो, किसी जीव का छेदन, भेदन इत्यादि हुआ हो। चरवले की दण्डी से कुतूहल वृत्ति करना, अथवा अनुकूलता होते हुए भी सामायिक नहीं किया हो इत्यादि की सम्यग् आलोचना करनी। देशावगासिक में भी पृथ्वीकायादि के भोग उपभोग - 131 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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