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________________ ममत्व विच्छेदन द्वार-दर्शन नामक पाँचवा द्वार-हानि नामक छट्टा द्वार श्री संवेगरंगशाला खाकर खेद करता है हा, हा! मुझे अब इन द्रव्यों से क्या प्रयोजन है? ऐसे वैराग्य के अनुसार संवेग में परायण बनता है। कोई संपूर्ण खाकर पश्चात्ताप करता है धिक् धिक् ! मुझे अब इन द्रव्यों की क्या आवश्यकता है? इस प्रकार वैराग्य के अनुसार संवेग में दृढ़ बनता है। और कोई उसे खाकर यदि मनपसंद रस में रसिक बने हुए चित्त परिणाम वाला उस भोजन में ही सर्व से या देश से आसक्ति करता है तो उस क्षपक मुनि को पुनः समझाने के लिए गुरु महाराज रसासक्ति को दूर कने वाले आनंद दायक वचनों से धर्मोपदेश करते हैं। केवल धर्मोपदेश को ही नहीं करे, परंतु उसको भय दिखाने के लिए सूक्ष्म भी गृद्धि शल्य के कष्टों को इस प्रकार बतालाए । भूखे इस जीव ने हिमवंत पर्वत, मलय पर्वत, मेरु पर्वत और सारे द्वीप, समुद्र तथा पृथ्वी के ढेर के समान, ढेर से भी अधिकतर आहार खाया है। इस संसार चक्र में परिभ्रमण करते सभी पुद्गलों को अनेक बार भोगा है और शरीर रूप में परिवर्तन किया है, फिर भी तूं तृप्त नहीं हुआ। पापी आहार के कारण शीघ्र सर्व नरकों में जाता है वहाँ से अनेक बार सर्व प्रकार की म्लेच्छ जातियों में भी उत्पन्न होता है। आहार के कारण तन्दुलिया मच्छ अंतिम सातवीं नरक में जाता है, इसलिए हे क्षपक मुनि ! तूं आहार की सर्व क्रिया को मन से भी इच्छा नहीं करना । तृण और काष्ठों से जैसे अग्नि शांत नहीं होती अथवा हजारों नदियों से लवण समुद्र तृप्त नहीं होता वैसे भोजन क्रिया का रस जीव को तृप्त नहीं कर सकता है। गरमी, ताप से पीड़ित जीव ने निश्चय ही इस संसार में जितना जल पिया उतना जल सारे कुओं में, तालाबों में, नदियों और समुद्रों में भी नहीं है। 1 इस अनंत संसार में अन्य अन्य जन्मों में माताओं के स्तन का जो दूध पिया है वह भी समुद्र के पानी से अधिकतर है। और स्वादिष्ट घृत समुद्र, क्षीर समुद्र और इक्षुरस समुद्र आदि महान् समुद्र में भी अनेक बार उत्पन्न हुआ है, फिर भी उस शीतल जल से तेरी प्यास शांत नहीं हुई। यदि इस तरह अनंत भूतकाल में तूंने तृि प्राप्त नहीं की तो वर्तमान में अनशन में रहे तेरी इसमें गृद्धि करने से क्या प्रयोजन है? जैसे-जैसे गृद्धि (आसक्ति) की जाये वैसे-वैसे जीवों को अविरति की वृद्धि होती है। जैसे-जैसे उसकी अविरति की वृद्धि होती है वैसे-वैसे उसके कारण से कर्मबंध होता है, इससे संसार और उस संसार में दुःखों की परंपरा बढ़ती है। इस तरह सर्व दुःखों का कारण रस गृद्धि है, इस कारण से संसारी जीवों के सारे दुःखों की पीड़ा, अभिमान का और अपमान का मूल कारण यह रस गृद्धि ही जानना । इस तरह ज्ञानादि गुणों से महान् और दीर्घ दुःख रूपी वृक्षों का मूल से छेदन करने वाले गुरु महाराज द्वारा गृद्धि रूप शल्य के विविध कष्टों को अच्छी तरह कहने से भव भ्रमण के दुःखों से डरा हुआ सम्यग् आराधना करने की रुचि वाला वह क्षपक महात्मा संवेगपूर्वक रसगृद्धि का त्याग करता है। ऐसा कहने पर भी कर्म के दोष से यदि गृद्धि का त्याग नहीं करें तो उसकी प्रकृति के हितकर निर्दोष भोजन उसे दे, ऐसे भोजन की प्राप्ति न हो, तो उसकी याचना करें अथवा खोज करें और ऐसा होने पर भी यदि नहीं मिले तो उसकी समाधि स्थिर रखने के लिए मूल्य आदि द्वारा उपयोगपूर्वक लाकर दें। केवल गुरु एकांत में मुनियों को प्रेरणा करे कि तुम्हें क्षपक के सामने इस तरह कहना कि 'संयम योग्य वस्तु यहाँ दुर्लभ है।' फिर इस तरह शिक्षा दिये हुए वे, क्षपक के आगे इसी तरह कहें और दुःख से पीड़ित हो इस तरह प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा कम देते जाएँ। फिर उचित समय गुरु कहे कि - हे क्षपक मुनि! तेरे लिए दुर्लभ अशनादि ले आने में मुनि कैसे कष्टों को सहन करते हैं? इससे वह पश्चात्ताप करते और प्रतिदिन एक-एक कौर का त्याग द्वारा आहार को कम करता है, वह क्षपक अपने पूर्व के मूल आहार में स्थिर रहता है और अनुक्रम से उसे भी कम करता जाये, इस तरह सारे आहार का संवर (त्याग) करता क्षपक मुनि अपने आपको पानी के अभ्यास से वासित करे अर्थात् त्रिविध आहार का त्याग करे । इस तरह मिथ्यात्वरूपी कमल को जलाने में हिम समान और संवेगी मनरूपी भ्रमर के लिए खिले हुए 1. इसीलिए कहा है "सर्वं जितं जिते रसे" रसनेन्द्रिय को जीतने पर सब जीत लिया। Jain Education International For Personal & Private Use Only 233 www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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