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________________ श्री संवेगरंगशाला ममत्व विच्छेदन द्वार-दर्शन नामक पाँचवा द्वार-हानि नामक छट्टा द्वार संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अंतर द्वार वाला ममत्व विच्छेद नाम के तीसरे द्वार में चौथा निर्यामक नाम का अंतर द्वार कहा । इस प्रकार निर्यामकादि के साथ अनशन की सामग्री हो तब आहार त्याग की इच्छा वाले क्षपक मुनि को सर्व वस्तुओं में इच्छा रहित जानने के बाद अनशन उच्चारण करावें, इच्छा रहित है या नहीं यह भोजन आदि दिखाने से जान सकते हैं। इसलिए अब वह दर्शन द्वार को अल्पमात्र कहते हैं । । ५४०६ ।। दर्शन नामक पाँचवां द्वार : उसके बाद प्रति समय बढ़ते उत्तम शुद्ध परिणाम वाला वह क्षपक महात्मा मरूभूमि के अंदर गरमी से दुःखी हुए मुसाफिर के समान अनेक पत्तों से युक्त वृक्ष को प्राप्त करके अथवा रोग से अत्यंत पीड़ित रोगी दुःख का प्रतिकार करने वाले वैद्य को प्राप्तकर जैसे विनती करता है, वैसे निर्यामक को प्राप्तकर और गुरुदेव को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर इस तरह निवेदन करता है - हे भगवंत ! बड़ी कठिनता से प्राप्त हो सके ऐसी यह सामग्री मैंने प्राप्त की है, इसलिए मुझे अब काल का विलम्ब करना योग्य नहीं है। कृपा करके मुझे अनशन का दान करो। दीर्घकाल काया की संलेखना करने वाले मुझे अब इस भोजनादि के उपभोग से क्या प्रयोजन है? इसके बाद उसकी निरीहता (इच्छा रहितता) जानने के लिए गुरु महाराज स्वभाव से ही श्रेष्ठ स्वाद वाला, स्वभाव से ही चित्त में प्रसन्नता प्रकट करने वाला, स्वभाव से ही महकते सुगंध और स्वभाव से ही इच्छा प्रकट कराने वाला आहार आदि श्रेष्ठ पदार्थ उसे दिखाये, दिखाने से जैसे कुरर पक्षी के कुरर शब्द को सुनकर मछली का समूह जल में से बाहर आता है, वैसे उसके हृदय में रहे संकल्प भाव अवश्य प्रकट होते हैं। यदि इस तरह द्रव्य को दिखाये बिना उसे आहार का त्रिविध से त्याग करवा दिया जाये तो बाद में किसी प्रकार के भोजन में उस क्षपक मुनि को उत्सुकता हो सकती है। और अन्नादि से सेवन की हुई आहार की संज्ञा भी कैसी है - पूर्व में जो भुक्त भोगी, गीतार्थ अच्छी तरह से वैरागी और शरीर से स्वस्थ हो, वह भी आहार के रस धर्म में जल्दी क्षोभित होता है। इसलिए त्रिविध आहार के उद्देश्य को नियम कराने वाले उसको प्रथम सारे उत्कृष्ट द्रव्य को दिखाने चाहिए। इस तरह चार कषाय के भय को भगाने वाली संवेगी मन रूपी भ्रमर के लिए खिले हुए पुष्पों के उद्यान समान संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अंतर द्वार वाले तीसरे ममत्व विच्छेद द्वार में पाँचवां दर्शन नाम का अंतर द्वार कहा । अब क्रमानुसार हानि द्वार की प्ररूपणा द्वारा द्रव्यों को दिखाने के बाद क्षपक मुनि को होता है, उस परिणाम को कहते हैं। हानि नामक छट्टा द्वार : अर्थात् आहार का संक्षेप रूप, गुरु महाराज से भोजन के लिए अनुमति प्राप्तकर अत्यंत प्रबल सत्त्व वाले क्षपक मुनि के आगे रखा हुआ अशनादि द्रव्यों को देखकर, स्पर्श करके, सूँघकर अथवा उसे ग्रहण करके इच्छा से मुक्त बना, इस प्रकार सम्यग् विचार करें- अनादि इस संसार रूपी अटवी में अनंतबार भ्रमण करते मैंने मन वांछित क्या नहीं भोगा? किस वस्तु को स्पर्श नहीं किया? क्या नहीं सूँघा ? अथवा मैंने क्या-क्या वस्तु प्राप्त नहीं की? अर्थात् मैंने हर पदार्थ का भोग, स्पर्श आदि सब कुछ किया, फिर भी इस पापी जीव को अल्पमात्र भी यदि तृप्ति नहीं हुई है, वह तृप्ति क्या अब होगी ? अतः संसार के किनारे पर पहुँचे हुए मुझे इन द्रव्यों से क्या प्रयोजन है? इस तरह चिंतन करते कोई संवेग में तत्पर बनता है। कोई अल्प आस्वादन करके अब किनारे पर पहुँचे हुए मुझे इस द्रव्य को खाने से क्या प्रयोजन है? इस प्रकार वैराग्य के अनुसार संवेग में दृढ़ बनता है। कोई 232 Jain Education International परिणाम प्रकट For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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