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________________ ममत्व विच्छेदन द्वार-निर्यामक नामक चौथा द्वार श्री संवेगरंगशाला को सम्यग् रूप में कहें। उसमें क्षपक मुनि को वह धर्मकथा इस प्रकार कहना कि जिसको सम्यग् सुनकर वह आर्त्त-रौद्र रूपी अपध्यान को छोड़कर संवेग निर्वेद को प्राप्त करें। ५. चार वादी मुनि वाद के लिए आने वाले प्रतिवादियों को बोलने से रोके अथवा समझाएँ। ६. तपस्वी के मुख्य द्वार पर चार मुनि उपयोगपूर्वक बैठे। ७. लब्धि वाले कपट बिना के चार मुनि उद्वेग बिना उत्साहपूर्वक क्षपक मुनि को रुचिकर दोष रहित आहार खोज कर लाये। ८. चार मुनि ग्लान के योग्य पानी लाकर दें। ९. चार महामुनि क्षपक मुनि की बड़ी नीति को परठे। १०. चार मुनि उसके कफ की कूण्डी, प्याला आदि को विधिपूर्वक परठे। ११. श्रोताओं को धर्मकथा करने वाले चार गीतार्थ बाहर बैठे। १२. सहस्र मल्ल के समान चार मुनि तपस्वी मुनि के उपद्रव आदि से रक्षण करते चार दिशा में रहें। इस तरह अड़तालीस निर्यामक मुनियों द्वारा क्षपक मुनि की निर्यामणा करानी चाहिए। उसमें भी भरत, ऐरावत क्षेत्रों में जब ऐसा काल हो, तब उस काल के अनुरूप अड़तालीस निर्यामक भी उसी तरह होते हैं, और काल के अनुसार इतने मुनियों का अभाव में क्रमशः चार-चार कम करना, जघन्य से चार अथवा दो भी निर्यामक होते हैं। कहा है कि जो जारिसओ कालो भरहैरवएसु होइवासेसु। ते तारिसया तइया दुवे जहन्नेण निज्जवया ।।५३९० ।। 'भरत और ऐरावत क्षेत्र में जब जैसा काल हो, तब उस काल अनुरूप निर्यामक भी जघन्य से दो होते हैं।' उसमें एक सदा पास में रहकर अप्रमत्त भाव में क्षपक मुनि की सार संभाल रखें और दूसरा प्रयत्नपूर्वक साथ के साधु का तथा अपना उचित निर्दोष आहारादि खोजकर ले आएँ। परंतु यदि किसी कारण से एक ही निर्यामक हो तो वह अपने लिए भी भिक्षा भ्रमण आदि नहीं कर सकता है, इसलिए अपने आपको छोड़ता है अथवा इससे विपरीत रूप से भिक्षार्थ भ्रमण करता है तो क्षपक को छोड़ता है, उसकी सारसंभाल नहीं कर सकता है, उस क्षपक मुनि की सार संभाल न करने से उसे साधु धर्म से अवश्य दूर करता है। क्योंकि निर्यामक के अभाव में तृषा-क्षुधा आदि से मंद उत्साही क्षपक बन जाता है। अकल्प्य आहारादि उपयोग अथवा दूसरे के पास याचनादि करता, अपभ्राजना (अपमान) करता है, अथवा असमाधि से मर जाये और दुर्गति में भी चला जाता है, इत्यादि दोष लगने के कारण क्षपक के पास जघन्य से दो निर्यामक होने ही चाहिए। तथा संलेखना करने वाले को निर्यामणा कराता है ऐसा सुनकर सुविहित आचार वाले सर्व मुनियों को वहीं जाना चाहिए और अन्य कार्य की गौणता रखनी चाहिए। क्योंकि यदि तीव्र भक्ति राग से संलेखना करने वाले के पास जाता है. वह दैवी सखों को भोगकर उत्तम स्थान रूप मक्ति को प्राप्त करता है। जो जीव एक जन्म में भी समाधि मरण से मरता है वह सात या आठ भव से अतिरिक्त अधिक बार संसार में परिभ्रमण नहीं करता है। श्रेष्ठ अनशन के साधक को सुनकर भी यदि साधु तीव्र भक्तिपूर्वक वहाँ नहीं जाता है तो उसकी समाधि मरण में भक्ति कैसी? और जिसको समाधि मरण में भी भक्ति नहीं हो, उसे मृत्युकाल में समाधि मरण किस तरह हो सकता है? ।।५४०० ।। तथा शिथिलाचारी साधुओं को क्षपक के पास में प्रवेश करने नहीं देना चाहिए, क्योंकि उनकी सावध (पापकारी) वाणी से क्षपक मुनि को असमाधि उत्पन्न होती है। तथा क्षपक मुनि को तेल या अर्क आदि के कुल्ले बार-बार कराने चाहिए कि जिससे जीभ और कान का बल टिका रहें और उच्चारण स्पष्ट हो अथवा मुख निर्मल रहें। इस तरह धर्मोपदेश से मनोहर और संवेगी मन रूपी भ्रमर के लिए खिले हुए पुष्पों का उद्यान समान - 231 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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