SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ममत्व विच्छेदन द्वार-निर्यामक नामक चौथा द्वार श्री संवेगरंगशाला निर्यामक नामक चौथा द्वार : उसके बाद जिसने द्रव्य से शरीर की संलेखना की हो और भाव से परीषह तथा कषाय की जाल को तोड़ी हो, वह क्षपक मुनि निर्यामणा करने वाले जो गुरु हो उसकी इच्छा करें, वह निर्यामक छत्तीस गुण वाला, प्रायश्चित्त की विधि में विशारद - गीतार्थ, धीर, पाँच समिति का पालक, तीन गुप्ति से गुप्त, अनासक्त अथवा स्वाश्रयी, राग, द्वेष और मद बिना के योग सिद्ध अथवा कृत क्रिया का सतत् अभ्यासी, समय का ज्ञाता, ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप समृद्धिशाली, मरण- समाधि की क्रिया और मरणकाल का ज्ञाता, इंगित आकृति से शीघ्र अथवा प्रार्थना-इच्छा करने वाले के स्वभाव को जानने वाला, व्यवहार कार्य करने में कुशल, अनशन रूपी रथ के सारथी अर्थात् क्षपक मुनि के अनशन को निर्विघ्न पूर्ण कराने वाले एवं अस्खलित आदि गुणों से युक्त द्वादशांगी रूप सूत्र के एक समुद्र सदृश निर्यामणा कराने वाले गुरु की और निर्यामक मुनियों की खोज करें। फिर आगम को प्रकाश करने में दीपक समान उस आचार्य श्री की निश्रा में धीर क्षपक मुनि महा प्रयोजन - मोक्ष के साधन के लिए अनशन को स्वीकार करें। फिर गुरु महाराज ने दिये हुए अल्प निद्रा वाले, संवेगी, पापभीरु, धैर्यवाले तथा पासत्था, अवसन्न और कुशील अथवा शिथिलाचार के स्थान छोड़ने में उद्यमी, क्षमापूर्वक सहन करने वाले, मार्दव गुण वाले, अशठ, लोलुपतारहित, लब्धिवंत, मिथ्या आग्रह से मुक्त, चतुर, सुंदर स्वरवाले, महासत्त्व वाले, सूत्र अर्थ में एकान्त आग्रह बिना स्याद्वादी, निर्जरा के लक्ष्य वाले, जितेन्द्रिय, मन से दान्त, कुतूहल से रहित, धर्म में दृढ़ प्रीति वाले, उत्साही, अवश्य कार्य में स्थिर दृढ़ मन वाले, उत्सर्ग - अपवाद के उस उस स्थान में श्रद्धालु और उसका उपदेशक, दूसरे के अभिप्राय के ज्ञाता, विश्वासपात्र, पच्चक्खाण में उसके विविध प्रकारों ज्ञाता, कल्प्य अकल्प्य को जानने में कुशल, समाधि को प्राप्त करने में और आगम रहस्यों के ज्ञाता, ऐसे अड़तालीस मुनि उसके निर्यामक बनें। वह इस प्रकार : १-उद्वर्तनादि कराना, २- अंदर के द्वार पर बैठना, ३ - संथारा का प्रतिलेखन आदि करना, ४ क्षपक मुनि को धर्मकथा सुनानी, ५- आगंतुक वादियों के साथ में वाद करना, ६ - मुख्य द्वार पर चौकी करना, ७ - आहार ले आना, ८-पानी ले आना, ९-मलोत्सर्ग करवाना, १० - प्रश्रवणश्लेष्म आदि परठना, ११ - बाहर के श्रोताओं को धर्म सुनाना, और १२ - चारों दिशाओं में संभाल रखनी । । ५३७६ ।। इन बारह विषयों में प्रत्येक के चार-चार विभाग होते हैं, वह इस प्रकार : १. अत्यंत कोमल हाथ से चार मुनि क्षपक मुनि के करवट को बदलाएँ, फिर दूसरी करवट बदलाएँ या चलाना आदि शरीर की सेवा करें, उसके बाद शरीर से कमजोर बनें तब हाथ आदि का सहारा देकर चलायें और यदि वह भी सहन करने में असमर्थ हो तो संथारे में रखकर ही उसे उठाना फेरना आदि करना। २. चार मुनि अंदर के द्वार में अच्छी तरह उपयोगपूर्वक बैठे और खयाल रखें। और ३. चार मुनि प्रतिलेखनापूर्वक संथारा बिछाये। ४. चार मुनि बारी-बारी अस्तो व्यस्त न बोले, इस तरह एक दूसरे अक्षरों को मिलाये बिना, अस्खलित, कम, अधिक, बिना विलम्ब से न हो, इस तरह शीघ्रता भी नहीं करना, एकत्रित उच्चारण से नहीं, वैसे एक ही उच्चारण बार-बार नहीं करना, परंतु मधुर स्वर पूर्वक स्पष्ट समझ में आये इस तरह, बहुत बड़ी आवाज नहीं, अति मंद स्वर से भी नहीं, असत्य अथवा निष्फल भी नहीं बोले, प्रतिध्वनि या गूंज न हो, इस तरह शुद्ध संदेह रहित सुनने वाले को अर्थ का निश्चय हो, इस तरह पदच्छेदनपूर्वक बोले अथवा क्षपक मुनि के हृदय को अनुकूल हो, इस तरह स्नेहपूर्वक मीठे शब्दों से और पथ्य भोजन के समान आनंदजनक धर्मकथा को चार मुनि उस क्षपक 230 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy