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परिकर्म विधि द्वार-स्वयंभूदत्त की कथा
श्री संवेगरंगशाला बोल दिया। फिर युद्ध में समर्थ सार्थपति के सुभट भी भाले, तलवार, बरछी आदि शस्त्र हाथ में लेकर उनके साथ युद्ध करने लगे। इसमें बलवान समर्थ सुभट मरने लगे। कायर पुरुष डर के कारण भाग गये और सार्थवाह बहुत दुःखी हुआ। कलिकाल जैसे धर्म का नाश करता है, वैसे अत्यंत निर्दय और प्रचंड बल वाले भिल्ल समूह ने सारे सार्थ को लूट लिया। उसके बाद सार-सार वस्तुओं को लूटकर और सुंदर स्त्रियों को तथा पुरुषों को कैद करके भिल्लों की सेना पल्ली में गयी।
अपने छोटे भाई से अलग पड़े उस स्वयंभूदत्त को भी किसी तरह 'यह धनवान है' ऐसा मानकर भिल्लों की सेना ने पकड़ा और भिल्लों ने चिरकाल तक चाबुक के प्रहार और बंधन आदि से, निर्दयता से सख्त मारते हुए भी जब उसने अपने योग्य कुछ भी वस्तु होने का नहीं माना, तब भय से काँपते सर्व शरीर वाले उसको, वे भिल्ल प्रचण्ड रूप वाली चामुण्डा देवी को बलिदान देने के लिए ले गयें। मरे हुए पशु और भैंसे के खून की धाराओं से वह मंदिर अस्त-व्यस्त था। दरवाजे पर बाँधे हुए बड़े अनेक घंट विरस आवाज से बज रहे थे। पुण्य की मान्यता से हमेशा भिल्ल उसकी तर्पण क्रिया में जीवों का बलिदान करते थे। लाल कनेर के पुष्पों की माला से उसका पूजा उपचार किया जाता था, और वह हाथी के चमड़े की वस्त्रधारिणी तथा भयंकर रूप वाली थी। उस चामुण्डा के पास स्वयंभूदत्त को ले जाकर भिल्लों ने कहा कि-हे अधम वणिक्! यदि जीना चाहता है तो अब भी शीघ्र हमें धन देने की बात स्वीकार कर। अकाल में यम मंदिर में क्यों जाता है? ऐसा बोलते उस स्वयंभूदत्त के ऊपर तलवार से घात करता है। उसके पहले अचानक महान कोलाहल उत्पन्न हुआ-अरे! इन बिचारों को छोड़ो और स्त्रियों, बालक और वृद्धों का नाश करने वाले इन शत्रु वर्ग के पीछे लगों। विलम्ब न करों। इस पल्ली का नाश हो रहा है. और घर जल रहा है। यह शब्द सनकर स्वयंभदत्त को छोडकर. चिर वैरी सभटों का आगमन जानकर, पवन को भी जीते ऐसे वेग से वे भिल्ल चामुण्डा के मंदिर में से तुरंत निकले। और 'मैंने आज ही जन्म लिया अथवा आज ही सारी सम्पत्तियाँ प्राप्त की' ऐसा मानता स्वयंभूदत्त वहाँ से उसी समय भागा। फिर भयंकर भिल्लों के भय से घबराता पर्वत की खाई के मध्य में होकर बहुत वृक्ष और लताओं के समूह से युक्त उजड़ मार्ग में चलने लगा, परंतु मार्ग में ही उसे सर्प ने डंख लगाया, इससे महाभयंकर वेदना हुई। इस कारण से उसने मान लिया कि अब निश्चय ही मैं मर जाऊँगा। जो कि महा मुश्किल से भिल्लों से छुटकारा प्राप्त किया तो अब यम समान सर्प ने डंख लगाया। हा! हा! विधि का स्वरूप विचित्र है। अथवा जन्म मरण के साथ, यौवन जरा के साथ, संयोग वियोग के साथ ही जन्म होता है, तो इसमें शोक करने से क्या लाभ? ऐसा विचार करते जैसे ही ठण्डे वृक्ष की छाया की ओर जाता है, वहाँ वृक्ष के नीचे रहे महासात्विक, विचित्र-नय सप्तभंगी से युक्त, दुर्जय सूत्र शास्त्र का परावर्तन करते, पद्मासन में बैठे हुए धीर और शान्त मुद्रा वाले चारण मुनि को देखा।
_ 'हे भगवंत! विषय विष वाले सर्प के जहर से व्याकुल मुझे इस समय आपका ही शरण हो।' ऐसा कहते हए वह बेहोश होकर वहीं पर ही नीचे गिर पड़ा। उसके बाद जहर से बेहोश बने उसे देखकर उस महामुनि ने करुणा से ऐसा विचार किया कि-'अब क्या करना योग्य है? सर्व जीवों को आत्म-तुल्य मानने वाला, साधुओं को पाप कार्यों में रक्त गहस्थों की उपचार सेवा में प्रवत्ति करना योग्य नहीं है। क्योंकि उसकी सेवा करने से निष्पाप जीवन वाले साधुओं को भी गृहस्थ जो-जो पाप स्थानक का सेवन करें उसमें उसके प्रति रागरूपी दोष से निमित्त कारण बनता है। परंतु यदि उपचार करने के बाद वह गृहस्थ तुरंत सर्व संग छोड़कर प्रव्रज्या स्वीकार करके सद्धर्म के कार्यों में उद्यम करें तो उनकी की हुई निर्जरा भी मुनि को होती है।' ऐसा विचार करते उस साधु की दाहिनी आँख सहसा निमित्त बिना ही फड़कने लगी। इससे उसने उपकार होने की सम्भावना करके उसके
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