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श्री संवेगरंगशाला
परिकर्म विधि द्वार-स्वयंभूदत्त की कथा पैर के अंदर ऊपर के भाग में सूक्ष्म और विकार रहित सर्प के डंख को देखकर उस महामुनि ने चिंतन किया किनिश्चय यह जियेगा। क्योंकि-सर्प दंश का स्थान विरुद्ध नहीं है, शास्त्र में मस्तक आदि को ही विरुद्ध कहा है। वह इस प्रकार से :
मस्तक, लिंग, चिंबुक अर्थात् होंठ के नीचे भाग में, गले, शंख, नेत्र और कान के बीच-कनपटी में तथा अंगूठे, स्तन भाग में, होंठ, हृदय, भृकुटी, नाभि, नाक, हाथ, पैर के तलवे में. कंधा, नख, नेत्र, कपाल, केश और संधी स्थान पर यदि सर्प डंख लगा हो तो यम के घर जाता है। तथा पंचमी, अष्टमी, षष्ठी, नवमी और चतुर्दशी की तिथियों में यदि सर्प डंख लगा हो तो पखवारे में मरता है। परंतु आज तिथि भी विरुद्ध नहीं है।।३८०० ।। नक्षत्र भी मघा, विशाखा, मूल, आश्लेषा, रोहिणी, आर्द्रा और कृतिका दुष्ट है, वह भी इस समय नहीं है और पूर्व मुनियों ने सर्प डंख लगने से मनुष्य को इतने अमंगल कहे हैं। शरीर कंप, लाल पड़ना, उबासी, आँखों की लाली, मूर्छा, शरीर टूटना, गाल में कृशता, कांति कम हो, हिचकी और शरीर की शीतलता, यह तुरंत मृत्यु के लिए होती हैं। इसमें से एक भी अमंगल नहीं दिखता है। इसलिए इस भव्य आत्मा के विष का प्रतिकार करूँ। क्योंकि-जैन धर्म दया प्रधान धर्म है। ऐसा विचारकर ध्यान से नम्र बनाये स्थिर नेत्रों वाले वे महामुनि सम्यक् पूर्वक विशिष्ट सूत्र का स्मरण करने लगे। फिर जब उस महात्मा ने शरदचंद्र के सतत् फैलती प्रभा के समान शोभती उज्ज्वल एवं अमृत की नीक का अनुकरण करती शीतल अक्षरों की पंक्ति को उच्चारण की, तब सूर्य के तेज समूह से अंधकार जैसे नाश होता है वैसे उसका महासर्प का जहर नाश हुआ और वह सोया हुआ जागता है, वैसे स्वस्थ शरीर वाला उठा। उसके बाद 'जीवनदाता और उत्तम साधु है' ऐसा राग प्रकट हुआ
और अति मानपर्वक वह चारण मनि को नमस्कार करके कहने लगा कि-हे भगवंत! मैं मानता हूँ कि भ्रमण करते भयंकर शिकारी प्राणियों से भरी हुई इस अटवी में आपका निवास मेरे पुण्य से हुआ है। अन्यथा हे नाथ! यदि आप यहाँ नहीं होते, तो महा विषधर सर्प के जहर से बेहोश हुआ मेरा जीवन किस तरह होता? कहाँ मरुदेश
और कहाँ फलों से समृद्धशाली महान कल्पवृक्ष? अथवा कहाँ निर्धन का घर और कहाँ उसमें रत्नों की निधि? इसी तरह अति दुःख से पीड़ित मैं कहाँ? और अत्यंत प्रभावशाली आप कहाँ? अहो! विधि के विलासों के रहस्य को इस जगत में कौन जान सकता है? हे भगवंत! ऐसे उपकारी आपको क्या दे सकता हूँ अथवा क्या करने से निर्भागी मैं ऋण मुक्त हो सकता हूँ?
मुनि ने कहा कि-हे भद्र! यदि ऋण मुक्त होने की इच्छा है तो तूं अब निष्पाप प्रव्रज्या (दीक्षा) को स्वीकार कर। मैंने तेरे ऊपर उपकार भी निश्चय इस प्रव्रज्या के लिए किया है। अन्यथा अविरति की चिन्ता करने का उत्तम मुनियों को अधिकार नहीं है। और हे भद्र! मनुष्यों का धर्म-रहित जीवन प्रशंसनीय नहीं है। इसलिए घर का राग छोड़कर, रागरहित उत्तम साधु बन। उसके बाद भाल प्रदेश पर हस्तकमल की अंजली जोड़कर उसने कहा कि-हे भगवंत! ऐसा ही करूँगा, केवल छोटे भाई का राग मेरे मन को पीड़ित करता है, यदि किसी तरह उसके दर्शन हों तो शल्य रहित और एकचित्त वाला मैं प्रव्रज्या स्वीकार करूँ। मुनि ने कहा कि-हे भद्र! यदि तूं जहर के कारण मर गया होता तो किस तरह छोटे भाई को देखने के योग्य होता? अतः यह निरर्थक राग को छोड़ दे और निष्पाप धर्म का आचरण कर, क्योंकि-जीवों को यह धर्म ही एक बन्धु भ्राता और पिता तुल्य है। मुनि के ऐसा कहने से स्वयंभूदत्त ने श्रेष्ठ विनयपूर्वक प्रव्रज्या को स्वीकार की, और विविध तपस्या करने लगा। दुःसह परीषह की सेना को सहन करते, महासात्त्विक उस गुरु के साथ में गाँव, नगर आदि से युक्त धरती ऊपर विचरने लगा। इस तरह ज्ञान, दर्शनादि गुणों से युक्त उसने दीर्घकाल गुरु के साथ में विहारकर, अंत में आयुष्य को अल्प
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