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परिकम विधि द्वार-भावना नामक चौदहवाँ प्रतिद्धार
श्री संवेगरंगशाला जानकर भक्त परीक्षा अनशन स्वीकार करते उसे गुरु ने समझाया कि-हे महाभाग! अंतकाल की यह सविशेष आराधना बहुत पुण्य से मिलती है। इसलिए स्वजन, उपधि, कुल, गच्छ में और अपने शरीर में भी राग मत करना, क्योंकि यह राग अनर्थों का मूल है। तब 'इच्छामो अणुसर्टि' अर्थात् आपकी शिक्षा को मैं चाहता हूँ। ऐसा कहकर गुरु की वाणी में दृढ़ रति वाले स्वयंभूदत्त ने अनशन को स्वीकार किया। और उसके पुण्योदय से आकर्षित होकर नगर जन उसकी पूजा करने लगे।
इधर पूर्व में अलग पड़ा हुआ वह सुगुप्त नाम का उसका छोटा भाई परिभ्रमण करता हुआ उस स्थान पर पहुँचा, और नगर के लोगों को मुनि के वंदन के लिए एक दिशा की ओर जाते देखकर उसने पूछा कि-ये सभी लोग वहाँ क्यों जा रहे हैं? एक मनुष्य ने उससे कहा कि-यहाँ प्रत्यक्ष सद्धर्म के भंडार रूप एक महामुनि अनशन कर रहे हैं, इसलिए तीर्थ के सदृश उनको वंदनार्थ ये लोग जा रहे हैं। ऐसा सुनकर कुतूहल से सुगुप्त भी लोगों के साथ में स्वयंभूदत्त साधु को देखने के लिए उस स्थान पर पहुँचा। फिर मुनि के रूप में भाई को देखकर वह बड़े जोर से रोता हुआ कहने लगा कि-हे भाई! हे स्वजन वत्सल! कपटी साधुओं से तूं किस तरह ठगा गया? कि अतिकृश शरीरवाला, तूंने ऐसी दशा प्राप्त की है। अब भी शीघ्र इस पाखण्ड को छोड़ और अब हम अपने देश जायेंगे। तेरे वियोग से निश्चय मेरा हृदय अभी भी फट जायगा। उसने ऐसा कहा। तब स्वयंभूदत्त ने भी कुछ राग से उसे पास बुलाकर पूर्व का सारा वृत्तान्त पूछा। और दुःख से पीड़ित उसने भी शोक से भाग्य फूटे शब्द वाली वाणी से 'भिल्लों का धावा से अलग हुआ' इत्यादि अपना वृत्तान्त कहा। फिर ऐसे करुण शब्दों के सुनने से स्नेह राग प्रकट होने से कलुषित ध्यान वाला स्वयंभूदत्त सर्वार्थ सिद्धि की प्राप्ति के योग अध्यवसाय होते हुए भी उसे छोड़कर भाई के प्रति स्नेहरूपी दोष से मरकर सौधर्म देवलोक में मध्यम आयुष्यवाला देव हुआ।।३८३८।।
इस तरह भावश्रेणी में जो योग व्यापार बाधक हो उसे आराधना के अभिलाषी यत्नपूर्वक तजें। इससे ही प्रयत्नपूर्वक आराधना रूपी ऊँचे महल की भाव सीढ़ी पर चढ़नेवाला आचार्य के साथ ही आलाप संलाप करें, मिथ्या दृष्टि लोग से मौन रहे इत्यादि यथायोग्य करना चाहिए। इससे अनशन को करने वाला सर्व सखशीलत का त्यागकर, और भावश्रेणी में आरोहणकर राग मुक्त होकर रहें।
इस तरह कामरूपी सर्प को नाश करने में गरुड़ की उपमा वाली संवेगरंगशाला नाम की आराधना का मूल प्रथम परिकर्म विधि द्वार के प्रस्तुत पन्द्रह प्रतिद्वारों के क्रमानुसार श्रेणी संबंधी यह तेरहवाँ अंतर द्वार कहा।।३८४५।।
अब श्रेणी में चढ़ा हुआ भी भाव के बिना स्थिर नहीं हो सकता। इसलिए भाव द्वार को सविस्तार कहता
भावना नामक चौदहवाँ प्रतिद्वार :
इससे जीव भावना वाला बनता है, इस कारण से इसे भावना कहते हैं। यह भावना अप्रशस्त और प्रशस्त दो प्रकार की होती है। उसमें-(१) कन्दर्प, (२) देव किल्विष, (३) आभियोगिक, (४) आसुरी, और (५) संमोह। यह पाँच प्रकार की भावना निश्चय से अप्रशस्त है। उसमें अर्थात् अप्रशस्त भावनाओं में अपने आपको हास्यादि अनेक प्रकार से भावित करें, वह कन्दर्प भावना जानें। कन्दर्प द्वारा, कौत्कुच्य से, द्रुतशीलपने से, हास्य करने से और दूसरे को आश्चर्य उत्पन्न करवाने वाली बात करने से। इस तरह पाँच भेद होते हैं। १. कंदर्प :
उसमें बड़ी आवाज से हँसना, दूसरों को हँसाना, गुप्त शब्द कहना, तथा काम वासना की बातें करनी,
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