________________
श्री संवेगरंगशाला
परिकर्म विधि द्वार-भावना नामक चौदहवाँ प्रतिद्धार काम वासना का उपदेश, और उसकी प्रशंसा करनी। इस तरह प्रथम कन्दर्प भावना के अनेक भेद जानना। कौत्कुच्य भावना अर्थात् पुनः उसी तरह कि जिसमें स्वयं नहीं हँसता, परंतु विविध चेष्टाओं को करके अपनी आँखें, भृकुटी आदि अवयवों से दूसरे को हँसाना। द्रुतशीलत्व-अर्थात् निश्चित रूप से अहंकार से चलना, अहंकार से बोलना इत्यादि तथा सर्व कार्यों में अति ही शीघ्रता करना। हास्य क्रिया-अर्थात् विचित्र वेश धारण द्वारा, अथवा विकारी वचनों से या मुख द्वारा स्वपर को हँसाना। और विस्मयकरण-अर्थात् स्वयं लेशमात्र भी विस्मय प्राप्त किए बिना इन्द्रजाल चमत्कारी मंत्र तंत्रादि से अथवा वक्र वचन आदि द्वारा अन्य को आश्चर्य प्रकट करवाना। इस तरह कन्दर्प भावना कही है।
अब दुष्ट हलके देवत्व को प्राप्त करने वाली पाँच प्रकार की दूसरी किल्विषिक भावना कहते हैं। २. किल्विषिक भावना :- इसके भी पाँच भेद हैं-(१) श्रुतज्ञान की अवज्ञा, (२) केवलि भगवंत की अवज्ञा, (३) धर्माचार्य की अवज्ञा, (४) सर्व साधुओं का अवर्णवाद बोलना तथा (५) गाढ़ माया करना। इसमें जीव, व्रत, प्रमाद आदि के जो भाव एक ग्रंथ में कहे हैं वही भाव दसरे ग्रंथों में भी बार-बार कहा है इत्यादि से अपमान करना वह प्रथम श्रुतज्ञान की अवज्ञा है। यदि वे सच्चे वीतराग हैं तो पक्षपात युक्त केवल भव्य जीवों को ही क्यों धर्म का उपदेश देते हैं। इस तरह उनकी निन्दा करना यह दूसरी केवलि अवज्ञा है। धर्म, आचार्य की जाति, कुल, ज्ञान आदि की निंदा करना वह तीसरी धर्माचार्य की अवज्ञा है। साधु को एक क्षेत्र में प्रेम-प्रसन्नता नहीं रहती, इसलिए अनेक गाँव में घूमते रहते हैं इत्यादि नाना प्रकार के शब्द बोलना चौथी सर्व साधु की निंदा है और अपने हृदय के भाव को छुपाना इत्यादि कपट प्रवृत्ति करने से होती है वह पाँचवीं गाढ़ माया जानना। इस तरह पाँच प्रकार की दूसरी किल्विषिक भावना कही है। ३. आभियोगिक भावना :- गारव में आसक्ति वाला जो वशीकरण मंत्रादि से अपने को वासित करता है वह आभियोगिक भावना जानना। वह भावना-(१) कौतुक, (२) भूतिकर्म, (३) प्रश्न, (४) प्रश्नाप्रश्न और (५) निमित्त कहने से पाँच प्रकार की होती है। इसमें अग्नि के अंदर होम करना, औषध आदि द्वारा अन्य को वश करके जो भोजन आदि प्राप्त करना वह प्रथम कौतुक आजीविका है। और भूतिकर्म-रक्षा सूत्र अर्थात् रक्षा-बंधन, वासक्षेप आदि से दूसरों की रक्षा करके आहार आदि को प्राप्त करना वह दूसरा भूतिकर्म आजीविका कहलाता है। अंगूठे आदि में देव को उतारकर, उसे पूछकर दूसरे के प्रश्न का निर्णय देकर भोजनादि की प्राप्ति करना उसे ज्ञानियों ने तीसरी प्रश्न आजीविका कही है। स्वप्न विद्या, घण्टाकर्ण पिशाचि की विद्या अथवा ऐसी किसी विद्या द्वारा पर के अर्थ का निर्णय करके आजीविका चलानी, उसे महामुनियों ने चौथी प्रश्नाप्रश्न आजीविका कही है। निमित्त शास्त्र द्वारा दूसरों को लाभ-हानि आदि बताना, उसके द्वारा जो आहार आदि प्राप्त करना उसे गुरुदेवों ने निमित्त आजीविका कही है। इस तरह आभियोगिक भावना का वर्णन किया।
अब असुर निकाय देव की संपत्ति देने वाली भावना का वर्णन करते हैं। ४. आसुरिक भावना :- यह पाँच प्रकार की है-(१) बार-बार कलहकरण, (२) संसक्त तप, (३) निमित्त कथन, (४) क्रूरता, और (५) निरनुकंपात्व। इसमें हमेशा लड़ाई-झगड़े करने में प्रीति रखना उसे प्रथम कलहकरण कहते हैं और आहारादि प्राप्त करने के लिए तप करना वह दूसरा संसक्त तप जानना। अभिमान से अथवा द्वेष से साधु द्वारा गृहस्थ को जो भूत-भावि आदि के भाव बतलाना-तेजी-मन्दी कहना वह तीसरा निमित्त कथन है। पुष्ट शरीरवाला समर्थ का पश्चात्ताप बिना-निध्वंस भाव से त्रसादि जीवों के ऊपर चलना, उस पर बैठना, खड़े रहना, सोना आदि करना वह चौथी निष्कृपा भावना (कठोरता) कहा है। और दुःख से पीड़ित तथा
164
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org