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परिकर्म विधि द्वार-भावना नामक चौदहवाँ प्रतिद्धार
श्री संवेगरंगशाला भय से अति कांपते हुए देखकर भी जो निष्ठुर हृदयवाला है उसे पाँचवा निरनुकम्पात्व कहते हैं। इस तरह आसुरी भावना के पाँच भेद कहे।
___ अब स्वयं को पर को भी मोह उत्पन्न करने वाली संमोह भावना कहते हैं। ५. संमोह भावना :- इसके भी पाँच भेद हैं-(१) उन्मार्ग देशना, (२) मार्ग दूषण, (३) उन्मार्ग का स्वीकार, (४) मोह मूढ़ता, और (५) दूसरे को महामूढ़ बनाना। उसमें (१) उन्मार्ग देशना-मोक्ष मार्ग रूप सम्यग्ज्ञान आदि में दोष बताकर, उससे विपरीत मिथ्या मोक्ष मार्ग के उपदेश देने वाले को जानना। मोक्ष के मार्गभूत, ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि के तथा उसमें स्थिर रहें श्रद्धावान् मनुष्यों के दोष कहना दोष की मूलभूत (२) मार्ग दूषण भावना होती है। अपने स्वच्छ वितर्कों द्वारा मोक्ष मार्ग को दोषित मानकर उन्मार्ग के अनुसार चलने वाले जीव को (३) मार्ग विप्रतिपत्ति भावना जानना। अन्य मिथ्या ज्ञान में, अन्य के मिथ्या चारित्र में तथा परतीर्थ वालों की संपत्ति को देखकर मुरझा जाना वह (४) मोह मुढ़ता भावना कहलाती है जैसे कि सरजस्क, गैरिक, रक्तपट आदि के धर्म को मैं सच्चा मानता हूँ कि जिससे लोक में ऐसा महान् पूजा सत्कार हुआ है। और सद्भावना से कपट से भी लोगों को किसी भी प्रयत्न द्वारा अन्य कुमत में जो आदर मोह प्राप्त करवाना वह (५) मोह जनन भावना कहलाती
है।
चारित्र की मलिनता में हेतुभूत और अत्यंत कठोर दुर्गति को देने वाली ये पाँच अप्रशस्त भावनाओं का अल्पमात्र वर्णन किया है। संयत चारित्रवान् यदि साधु किसी प्रकार इन अप्रशस्त भावनाओं में प्रवृत्ति करता है, वह (उस समय देवायुष्य का बंध कर रहा है तो) उसी प्रकार की देवयोनि में उत्पन्न होता है। चारित्र रहित को तो हल्की देव योनि मिलती है, ऐसा जानें। इन भावनाओं द्वारा अपने को उसमें वासित करता जीव दुष्ट देव गति में जाता है। और वहां से आयुष्य पुर्ण करके अनंत संसार समुद्र में परिभ्रमण करता है। इसलिए इन भावनाओं का दूर से त्यागकर सर्व संग में राग रहित महामुनिराज को सम्यक् सुप्रशस्त भावनाओं से वासित बनना चाहिए।।३८८४।।
अब प्रशस्त भावनाओं का वर्णन करते हैं।
प्रशस्त भावना :- इसके पाँच भेद हैं-(१) तप भावना, (२) श्रुत भावना, (३) सत्त्व भावना, (४) एकत्व भावना, और (५) धीरज बल भावना। उसमें
(१) तप भावना-तप भावना से दमन की हुई पाँचों इन्द्रियाँ जिसकी वश हुई हों, उन इन्द्रियों को वश करने में अभ्यासी आचार्य उन इन्द्रियों को समाधि में साधन बनाता है। मुनिजन के निंदित, इन्द्रियों के सुख में आसक्त और परीषहों से पराभव प्राप्त करने वाला, जिसने वैसा अभ्यास नहीं किया, वह नपुंसक व्यक्ति आराधना काल में व्याकुल बनता है। जैसे चिरकाल तक सुख से लालन-पालन किया हो और योग अभ्यास को नहीं सिखाया हो वह घोड़ा युद्ध के मैदान में लगाने से कार्य सिद्ध नहीं कर सकता, वैसे पूर्व में अभ्यास किये बिना के मरण काल में समाधि को चाहता जीव भी परीषहों को सहन नहीं कर सकता और विषयों के सुख को छोड़ नहीं सकता।
(२) श्रुत भावना-इसमें श्रुत के परिशीलन से ज्ञान, दर्शन, तप और संयम आत्मा में होता है, इससे वह व्यथा बिना सुखपूर्वक उसे उपयोगपूर्वक चिंतन में ला सकता है। जयणापूर्वक योग को परिवासित करने वाला, अभ्यासी आत्मा श्री जिनवचन का अनुकरण करने वाला, बुद्धिशाळी आत्मा घोर परीषह आ जाये तो भी परिणाम से भ्रष्ट नहीं होता है।
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