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________________ श्री संवेगरंगशाला परिकम विधि द्वार-एकत्व भावना वाले मुनि की कथा-आर्य महागिरि का प्रबन्ध (३) सत्त्व भावना-शारीरिक और मानसिक उभय दुःख एक साथ आ जायें तो भी सत्त्व भावना से जीव भूतकाल में भोगे हुए दुःखों का विचारकर व्याकुल नहीं होता। तथा सत्त्व भावना से धीर पुरुष अपने अनंत बाल मरणों का विचार करते यदि मरण आ जाए तो भी व्याकुल नहीं बनता। जैसे युद्धों से अपनी आत्मा को अनेक बार अभ्यासी बनाने वाला सुभट रण-संग्राम में आकुल-व्याकुल नहीं होता, वैसे सत्त्व का अभ्यासी मुनि उपसर्गों में व्याकुल नहीं होता। दिन अथवा रात्री में भयंकर रूपों द्वारा देवों के डराने पर भी सत्त्व भावना से पूर्ण आत्मा धर्म साधना में अखण्डता वहन करता है। (४) एकत्व भावना-एकत्व भावना से वैराग्य को प्राप्त करने वाला जीव कामभोगों में मन के अंदर अथवा शरीर में राग नहीं करता, परंतु श्रेष्ठ धर्म का पालन करता है। जैसे व्रत भंग होते अपनी बहन में जिन कल्पित मुनि एकत्व भावना से व्याकुल नहीं हुए, उसी तरह तपस्वी भी व्याकुल नहीं होता है। वह इस प्रकार है ।।३८९७।। एकत्व भावना वाले मुनि की कथा पुष्पपुर में पुष्पकेतु राजा था। उसकी पुष्पवती नाम की रानी थी। उससे पुत्र-पुत्री का जोड़ा उत्पन्न हुआ। उचित समय पर पुत्र का नाम पुष्पचूल और पुत्री का नाम पुष्पचूला रखा। क्रमशः उन दोनों ने यौवन वय को प्राप्त किया। परस्पर उनका अत्यंत दृढ़ स्नेह को देखकर, उनका परस्पर वियोग न हो, इसलिए राजा ने अनुरूप समय पर ।।३९००।। समान रूप वाले पुरुष के साथ विवाह करवाया और अब वह अपने घर ही रहकर पुष्पचूला पति के साथ समय व्यतीत करती थी। बहन के सतत् परम स्नेह में बँधा हुआ पुष्पचूल भी अखण्ड राज्य लक्ष्मी को इच्छानुसार भोगता था। एक समय परम संवेग को प्राप्त करने से वह महात्मा पुष्पचूल दीक्षित हुआ, और उसके स्नेह से पुष्पचूला ने भी दीक्षा ग्रहण की। फिर सूत्र अर्थ का अभ्यास कर उस धीरपुरुष पुष्पचूल मुनि जिनकल्प को स्वीकार करने के लिए आत्मा को एकत्व भावना के अत्यंत अभ्यासी होने लगे। तब एक देव ने उनकी परीक्षा के लिए पुष्पचूला का दूसरा रूप बतलाकर जार पुरुष पुष्पचूला का बलात्कार से व्रत भंग करने लगा। तब वह उस दुःख से पीड़ित हो बोली- 'हे बड़े भाई मेरी रक्षा करो।' उसे देखते हुए भी शुद्ध परिणाम वाले उस धीमान् पुष्पचूल मुनि ने उसकी अवगणना की-हे जीव! तूं अकेला ही है, ये बाह्य स्वजनों के योग से तुझे क्या है? इस तरह एकत्व भावना के वासित धर्म ध्यान से अल्पमात्र भी चलित नहीं हुए। ५. धैर्य बल भावना :- यदि अत्यंत दुःसह लगे और अल्प सत्त्व वालों को भयजनक समग्र परीषहों की सेना उपसर्ग सहित चढ़कर आये तो भी धीरता से अत्यंत दृढ़, शीघ्र एक साथ पीड़ा होते हुए भी मुनि को अपना इच्छित पूर्ण होता हो, इस तरह व्याकुलता रहित उसे सहन करता है। यह विशुद्ध भावना से चिरकाल आत्म शुद्धि करके मुनि दर्शन, ज्ञान और चारित्र में उत्कृष्टता से विचरण करता है। जिनकल्प को स्वीकारकर महामुनि इन भावनाओं द्वारा जैसे आत्मा की समर्थता बतलाता है, वैसे ही यह उत्तमार्थ का साधक भी यथाशक्ति इन भावनाओं से अपने को वासित करता है, उसमें किसी का दोष नहीं है? इसलिए सत्त्व वाले भगवंत श्री आर्य महागिरि को ही धन्य है कि जिन्होंने जिनकल्प का विच्छेद होने पर भी उसका परिकर्म-अर्थात् आचरण किया था ।।३९१२ ।। वह इस प्रकार है : आर्य महागिरि का प्रबन्ध कुसुमपुर नगर के नंद राजा को सम्यग् बुद्धि का समुद्र, जैनदर्शन के भेदों को जानने वाला, शकडाल 166 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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