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परिवर्म विधि द्वार-एकत्य भावना वाले मुनि की कथा-आर्य महागिरि का प्रबन्ध
श्री संवेगरंगशाला
नामक श्रावक मंत्री था। रूप से कुबेर के पुत्र समान, पवित्र गुणों से शोभित, अत्यंत विलासी और भोगी, स्थूल भद्र नामक उसका पुत्र था। जब वररुचि के प्रपंच से नंद राजा को रुष्ट हुआ देखकर शकडाल ने जहर खाकर मृत्यु की सिद्धि की, तब महासात्त्विक स्थूलभद्र को राजा ने कहा कि-हे धीर! तेरे पिता के मंत्री पद को स्वीकार कर और कुविकल्प छोड़कर, प्रचन्ड राज्य भार को पूर्व की नीति द्वारा धारण कर।' फिर घरवास को बाह्य से मधुर और परिणाम से अहितकर जानकर तथा विषय की आसक्ति को छोड़कर उस स्थूलभद्र ने संयम रूपी उत्तम योग को स्वीकार किया। तथा आचार्य श्री संभूतविजयजी के पास सूत्र अर्थ का अभ्यास करके उस समय में श्रेष्ठ चारों अनुयोग के धारण करने वाले अनुयोगाचार्य हुए। काम की शक्ति को चकनाचूर करने वाले उस महात्मा ने पूर्व परिचित उपकोशा वेश्या के घर में चातुर्मास किया। ऐसा अति आश्चर्यकारी उनका च कौन आनंद से विभोर रोमांचित से व्याप्त शरीरवाला नहीं होता है? उस उपकोशा के घर में रहकर उन्होंने ऐसा अपना परिचय दिया कि वही धीर है कि विकार का निमित्त होते हुए भी जिसका मन विकार वाला नहीं बना। सिंह गुफा के द्वार पर काउस्सग्ग करने वाले आदि उत्तम चार मुनियों में गुरु ने जिसकी 'अतिदुष्कर दुष्करकारी' ऐसा कहकर प्रशंसा की। उसके निर्मल शीलगुण से आनंदित मन वाली उपकोशा ने भी राजा ने सौंपे हुए रथकार के समक्ष अपनी भक्ति पूवर्क उसकी प्रशंसा की कि-आमों का गुच्छा तोड़ना कोई दुष्कर कार्य नहीं है, और न सरसों पर नाचना भी दुष्कर है। महादुष्कर तो यह है कि जिस महानुभाव स्थूलभद्र मुनि ने स्त्रियों की अटवी में भी अमूर्च्छित रहें। इस तरह शरदपूर्णिमा के चंद्र समान निर्मल यशरूपी लक्ष्मी से जगत की शोभा बढ़ाने वाले उस स्थूलभद्र महामुनि के श्री आर्य महागिरि तथा श्री आर्यसुहस्ति दो शिष्य थे। वे भी वैसे ही निर्मल गुणरूपी मणियों के निधान, काम के विजेता, भव्य जीवरूपी कुमुद विकसित करने में तेजस्वी चंद्र के बिम्ब समान, चरणकरण आदि सर्व अनुयोग के समर्थ अभ्यासी, बढ़ते हुए मिथ्यात्व रूपी गाढ़ फैले हुए अंधकार को नाश करने वाले, शुद्ध गुण रत्नों की खान रूपी सूरि पद की प्राप्ति से विस्तृत प्रकट प्रभाव वाले और तीन भवन के लोगों से वंदित चरण वाले दोनों आचार्य भगवंतों ने चिरकाल तक सकल सूत्र अर्थ का अध्ययनकर श्री आर्य महागिरिजी अपने गण-समुदाय को श्री सुहस्ति सूरि को सौंपकर 'जिनकल्प का विच्छेद हुआ है।' ऐसा जानते हुए भी उसके अनुरूप अभ्यास करते वे गच्छ की निश्रा में विचरते थे।
__एक समय विहार करते वे महात्मा पाटलीपुत्र नाम के श्रेष्ठ नगर में पधारें, और योग्य समय में उपयोग पूर्वक भिक्षा लेने के लिए नगर में प्रवेश किया। इधर उसी नगर में रहने वाला वसुभूति सेठ स्वजनों को बोध कराने के लिए श्री आर्य सुहस्तिसूरीजी को अपने घर ले गया। आर्य सुहस्तिसूरि ने प्रतिबोध करने के लिए धर्म कथा का प्रारंभ किया, और उस प्रसंग पर श्री आर्य महागिरिजी भिक्षा के लिए वहाँ पधारें। उनको देखकर महात्मा श्री आर्यसुहस्तिसूरि भावपूर्वक खड़े हुए। इससे विस्मित मनवाले वसुभूति सेठ ने इस प्रकार कहा कि-हे भगवंत! क्या आप श्री से भी बड़े अन्य आचार्य हैं? कि जिससे इस तरह आप उनको देखकर खड़े हुए आदि विनय किया? तब आर्य सुहस्ति सूरि ने कहा कि-हे भद्र! इनका प्रारंभ अति दुष्कर है. जिनकल्प का विच्छेद होने पर भी ये भगवंत इस तरह उसका अभ्यास करते हैं। अनेकानेक उपसर्गों के समय भी निश्चल रहते हैं, फेंकने योग्य आहार पानी लेते हैं. हमेशा काउस्सग्ग ध्यान में रहते हैं. एक धर्म ध्यान में ही स्थिर. अपने शरीर में भी मूर्छा रहित, और अपने शिष्यादि समूदाय की भी ममता बिना के वे शून्य घर अथवा श्मशान आदि में विविध प्रकार के आसन्न-मुद्रा करते रहते हैं। इत्यादि जिनकल्प की तुलना करते हैं, उनकी इस तरह गुण प्रशंसा 1. अन्य ग्रन्थों में कोशा वेश्या के वहाँ चातुर्मास का वर्णन आता है।
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