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श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार-भावना पटल नामक चौदहवाँ द्वार-शौचबादी बाहरण का प्रचं
उसे खाने लगा। कुछ समय जाने के बाद उस व्यापारी के साथ उसका मिलन हुआ और साथ में ही रहने से परस्पर प्रेम हो गया। एक समय भोजन के समय ब्राह्मण ने पूछा कि-तुम क्या खाते हो? व्यापारी ने कहा कि-ईख। ब्राह्मण ने कहा कि यहाँ ईख के फलों को तूं क्यों नहीं खाता? व्यापारी ने कहा कि-ईख के फल नहीं होते हैं। ब्राह्मण ने कहा कि मेरे साथ चल, जिससे वह तुझे दिखाऊँ। तब नीचे पड़ी सुखी हुई ईख की विष्टा उस व्यापारी को दिखाई। इससे व्यापारी ने कहा कि-हा! हा! महायश! तूं विमूढ़ हुआ है, यह तो मेरी विष्ठा है। यह सुनकर परम संशयवाले ब्राह्मण ने कहा कि-हे भद्र! ऐसा कैसे हो सकता है? इससे व्यापारी ने उसके बिना दूसरों की भी विष्ठा की कठोरता समान रूप आदि कारणों द्वारा प्रतीति करवाई। फिर परम शोक को करते ब्राह्मण अपने देश की ओर जाने वाले जहाज में बैठकर पुनः अपने स्थान पर पहुँचा। इस प्रकार वस्तु स्वरूप से अज्ञानी जीव शोचरूपी ग्रह से अत्यंत ग्रसित बना हुआ इस जन्म में भी इस प्रकार के अनर्थों का भागी बनता है और परलोक में भी अशचि के प्रति दुर्गंछा के पाप विस्तार से अनेक बार नीच योनियों में जन्म आदि प्राप्त करता है। इसलिए हे क्षपक मुनि! देह की अशुचित्व को सर्व प्रकार से भी जानकर आत्मा को परम पवित्र बनाने के लिए धर्म में ही विशेष उद्यम करो ।।८७३९।।
अन्य आचार्य महाराज प्रस्तुत अशुचित्व भावना के स्थान पर इसी तरह असुख भावना का उपदेश देते हैं, इसलिए उसे भी कहते हैं। श्री जिनेश्वर के धर्म को छोड़कर तीन जगत में भी अन्य सुख कारण-अथवा शुभ-कृत्य या स्थान मृत्यु लोक में या स्वर्ग में कहीं पर भी नहीं है। धर्म, अर्थ और काम के भेद से तीन प्रकार का कार्य जीव को प्रिय है. उसमें धर्म एक ही सख का कार्य है जबकि अर्थ और काम पनः असखकारक है। जैसे कि धन, वैर भाव की राजधानी, परिश्रम, झगड़ा और शोकरूपी दुःखों की खान, पापारंभ का स्थान और पाप की परम जन्मदात्री है। कुल और शील की मर्यादा को विडम्बना कारक स्वजनों के साथ भी विरोधकारक, कुमति का कारक और अनेक अनर्थों का मार्ग है। काम-विषयेच्छाएँ भी इच्छा करने मात्र से भी लज्जाकारी, निंदाकारी, नीरस और परिश्रम से साध्य हैं। प्रारंभ में कुछ मधुर होते हुए भी अति बीभत्स कामभोग निश्चय ही अंत में दुःखदायी, धर्म गुणों की हानि करने वाला, अनेक प्रकार से भयदायी, अल्पकाल रहनेवाला, क्रूर और संसार की वृद्धि करने वाला है। इस संसार में नरक सहित तिर्यंच समूह में और मनुष्य सहित देवों में जीवों को उपद्रव-दुःख रहित अल्प भी स्थान नहीं है। अनेक प्रकार के दुःखों की व्याकुलता से, पराधीनता से और अत्यंत मूढ़ता से तिर्यंचों में भी सुखी जीवन नहीं है, तो फिर नरक में वह सुख कहाँ से हो सकता है? तथा गर्भ, जन्म, दरिद्रता, रोग, जरा, मरण और वियोग से पराभव होते मनुष्यों में भी अल्पमात्र सुखी जीवन नहीं है। मांस, चरबी, स्नायु, रुधिर, हड्डी, विष्ठा, मूत्र, आंतरडियाँ स्वभाव से कलुषित और नौ एवं बारह छिद्रों से अशुचि बहते मनुष्य के शरीर में भी क्या सुखत्व है? और देवों में भी प्रिय का वियोग, संताप, च्यवन, भय और गर्भ में उत्पत्ति की चिंता इत्यादि विविध दुःखों से प्रतिक्षण खेद करता है और ईर्ष्या, विवाद, मद, लोभादि जोरदार भाव शत्रुओं से भी नित्य पीड़ित है? तो देव का भी किस प्रकार सुखी जीवन है? अर्थात् वह भी दुःखी ही है।
(७) आश्रव भावना :- इस प्रकार दुःखरूप संसार में यह जीव सर्व अवस्थाओं में भी जो कुछ भी दुःख को प्राप्त करता है वह उसके बंध किये हुए पापों का पराक्रम है। अनेक द्वार वाला तालाब जैसे अति विशाल जल का संचय करता है, वैसे जीव, जीव-हिंसादि से, कषाय से, निरंकुश इन्द्रियों से, मन, वचन और काया से, अविरति से और मिथ्यात्व की वासना से जिस पाप का संचय करता है, उन सब पाप के कार्यो को आश्रव कहते हैं। वह इस प्रकार से-जैसे सर्व ओर से बड़े द्वार बंद नहीं करने से गंदे पानी का समूह किसी प्रकार से भी
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