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________________ समाधि लाभ द्वार-आवना पटल नानक चौदहवाँ द्वार-शिवराजर्षि की कथा श्री संवेगरंगशाला रुकावट के बिना सरोवर में प्रवेश करता है, वैसे नित्य विरति नहीं होने से जीव हिंसा आदि बड़े द्वार से अनेक पाप का समूह इस जीव में प्रवेश करता है। उसके बाद उससे पूर्ण भरा हुआ जीव सरोवर में मच्छ आदि के समान अनेक दुःखों का भोक्ता बनता है, इसलिए हे क्षपक मुनि! उस आश्रव का त्याग कर। आश्रव के वश बना जीव तीव्र संताप को प्राप्त करता है, इसलिए जीव हिंसादि की विरति द्वारा उस द्वार को बंद कर। (८) संवर भावना :- सर्व जीवों को आत्म तुल्य मानने वाला जीव सर्व आश्रव द्वारों का संवर करने से सरोवर में पानी के समान पाप रूपी पानी से नहीं भरता है। जैसे बंद किये द्वार वाले श्रेष्ठ तालाब में पानी प्रवेश नहीं करता है वैसे आश्रव द्वार को बंद करने वाले जीव में पाप समूह का प्रवेश नहीं होता है। जो पाप के आश्रव द्वारों को दूर कर उससे दूर रहते है। उनको धन्य है, उनको नमस्कार हो और उनके साथ में हमेशा सहवास हो। इस प्रकार सर्व आश्रव द्वारों को अच्छी तरह रोककर हे क्षपक मुनि! अब नौवी निर्जरा भावना पर भी सम्यक् चिंतन कर ।।८७६३ ।। जैसे कि : (९) निर्जरा भावना :- श्री जिनेश्वरों ने दूसरे आत्मा पर अति दुष्ट आक्रमण करने वाले दुष्ट भाव में पूर्व में स्वयं ने बंध किये कर्मों की मुक्ति उसके भोगने से होती है ऐसा कथन किया है। तथा अनिकाचित्त समस्त कर्म प्रकृतियों की प्रायः कर अति शुभ अध्यवसाय से शीघ्र निर्जरा होती है। और पूर्वकृत निकाचित कर्मों की भी निर्जरा दो, तीन, चार, पाँच अथवा अर्धमास के उपवास आदि विविध तप से होती है ऐसा कथन किया है। रस, रुधिर, मांस, चर्बी आदि धातुएँ एवं सर्व अशुभ कर्म तपकर भस्म हो जाये उसे तप कहते हैं। इस प्रकार निरूक्ति (व्याख्या) शास्त्रज्ञों ने कही है। उसमें भोगने से कर्मों की निर्जरा नारक, तिर्यंच आदि की होती हैं। शुभ भाव से निर्जरा भरत चक्रवर्ती आदि की हुई है। और तप से निर्जरा शाम्ब आदि महात्माओं की हुई है ऐसा जानना। इस तरह से निरंतर विविध दुःखों से पीड़ित नारकी आदि के कर्मों की निर्जरा केवल देश से कही है। अत्यंत विशुद्धि को प्राप्त करते श्रेष्ठ भावना वाले भरतादि को भी उस प्रकार की विशिष्ट कर्म निर्जरा सिद्धांत में कही है। और कृष्ण के पूछने से श्री नेमिनाथ प्रभु ने बारह वर्ष के बाद द्वारिका का विनाश होगा ऐसा कहने से सम्यग् संवेग को प्राप्तकर श्री नेमिनाथ प्रभु के पास दीक्षा लेकर दुष्कर तप में रक्त बने शाम्ब आदि कुमारों ने तप से भी कर्मों की निर्जरा की है। तथा दूसरे नये पानी का प्रवेश बंद होने से जलाशय में रहा पुराना पानी जैसे ठंडी, गरमी और वायु के द्वारा सूख जाता है वैसे आश्रव बंद करने वाले जीव में रहे हुए पूर्व में बंध किये हुए पाप भी तप, ज्ञान, ध्यान, अध्ययन आदि अति विशुद्ध क्रिया से उनकी निर्जरा होती है। इस तरह हे सुंदर मुनि! तूं निर्जरा भावना रूपी श्रेष्ठ नाव द्वारा दुस्तर कर्म रूपी जल में से अपने को शीघ्र पार उतार। फिर सर्व संग का सम्यक् त्यागी और निर्जरा का सेवन करनेवाला होकर ऊपर कही नौ भावनाओं से युक्त विरागी बन, तूं ऊर्ध्व तिर्छा और अधोलोक की स्थिति को तथा उसमें रहे सचित्त, अचित्त, मिश्र सर्व पदार्थों के स्वरूप का भी उपयोग पूर्वक इस तरह विचार कर। (१०) लोक स्वरूप भावना :- इसमें ऊर्ध्वलोक में देव विमान, ति लोक में असंख्याता, द्वीप समुद्र और अधोलोक में, नीचे सात पृथ्वी, इस प्रकार से संक्षेप में लोक स्वभाव स्वरूप है। लोक स्थिति को यथार्थ स्वरूप नहीं जानने वाले जीव स्वकार्य के साधक नहीं होते हैं और उसका सम्यग् ज्ञाता शिव तापस के समान स्वकार्य साधक बनता है ।।८७७९ ।। उसकी कथा इस प्रकार : शिवराजर्षि की कथा हस्तिनापुर नगर में शिव नामक राजा था। उसने राज्य लक्ष्मी को छोड़कर तापसी दीक्षा लेकर वनवास 365 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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