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________________ संसार अटवी में धर्म की दुर्लभता श्री संवेगरंगशाला अब अपने पूज्य गुरुदेव की स्तुति करते हैं : जिनके चरण कमल के प्रभाव से मैंने सब लोगों में प्रशंसनीय सूरिपदवी प्राप्त की है, वे देवों से अथवा पंडितों द्वारा पूजनीय मेरे गुरु भगवंत को मैं वंदन करता हूँ। इस तरह समस्त स्तुति समूह को इस स्तुति द्वारा जैसे सुभट हाथियों के समूह द्वारा शत्रुरूपी प्रतिपक्ष को चकनाचूर करता है वैसे विघ्नों रूपी प्रतिपक्ष को चकनाचूर करने वाला मैं स्वयं अल्पमति वाला होने पर भी महान् गुणों के समूह से श्रेष्ठ सद्गुरु के चरणकमल अथवा चारित्र के प्रभाव से भव्यात्माओं को हितकारक कुछ अल्पमात्रा में कहता हूँ। संसार अटवी में धर्म की दुर्लभता :- अंकुश बिना यमराज रूपी सिंह हिरन तुल्य संसारी जीवों के समूह को जहाँ पर हमेशा मारता है, विलासी दुर्दान्त इन्द्रिय रूपी शिकारी जीवों से वह अति भयंकर है, पराक्रमी कषायों का विलास जहाँ पर फैला हुआ है, कामरूपी दावानल से जो भयानक है, फैली हुई दुर्वासना रूपी पर्वत की नदियों के पूर के समान दुर्गम्य है और तीव्र दुःख रूपी वृक्ष सर्वत्र फैले हुए हैं, ऐसी विकट अटवी रूपी गहन इस संसार में लम्बे मार्ग की मुसाफिरी करने वाले मुसाफर के समान मुसाफरी करते जीवों को गहरे समुद्र में मोती की प्राप्ति करने के समान, गाड़ी के जुआ (धूरी) और समीला के दृष्टान्त सदृश मनुष्य जीवन अति दुर्लभ है, उसे अति मुश्किल से प्राप्त करने पर भी उर्वरा भूमि में उत्तम अनाज प्राप्ति, अथवा मरुभूमि में कल्पवृक्ष की प्राप्ति के समान, मनुष्य जीवन में भी अच्छा कुल, उत्तम जाति, पंचेन्द्रिय की सम्पूर्णता, पटुता, लम्बी आयु आदि धर्म सामग्री, उत्तरोत्तर विशेष रूप से प्राप्त करना दुर्लभ है, उसे भी प्राप्त कर ले फिर भी सर्वज्ञ परमात्मा कथित कलंक रहित धर्म अति दुर्लभ है। क्योंकि वहाँ पर भी भावि में कल्याण होने वाला हो, संसार अल्प शेष रहा हो, अति दुर्जय मिथ्यात्व मोहनीय कर्म निर्बल बना हो, तब जीवात्मा को सद्गुरु के उपदेश से अथवा अपने आप नैसर्गिक राग-द्वेष रूपी कर्म की ग्रन्थी-गाँठ का भेदन होने से धर्म की प्राप्ति होती है। वह धर्म कैसा है उसे कहते बड़े पर्वत की अति तेज रफ्तार वाली महानदी के बहाव में डूबते जीव को नदी के किनारे का उत्कृष्ट आधार मिल जाय, भिखारी को निधान मिल जाये, विविध रोगों से दुःखी रोगी को उत्तम वैद्य मिल जाये और कुएँ में गिरे हुए को बाहर निकलने के लिए किसी के हाथ का मजबूत सहारा मिल जाय वैसे अत्यन्त पुण्य की उत्कृष्टता द्वारा प्राप्त हो सके ऐसे चिन्तामणी और कल्पवृक्ष को भी जीतनेवाला महान् उपकारी सर्वज्ञ कथित निष्कलंक धर्म को जीव प्राप्त करता है, इसलिए ऐसे परमधर्म को प्राप्तकर आत्मा को अपने हित के लिए ही खोज करनी चाहिए। वह हित ऐसा होना चाहिए कि जो किसी भी अहितकर निमित्त से, कहीं पर भी कभी भी बाधित न हो। ऊपर कहे अनुसार अनुपम-सर्वश्रेष्ठ, कभी भी नाश नहीं होने वाला और दुःख रहित, शुद्ध श्रेष्ठ हित (सुख) मोक्ष में मिलता है। वह मोक्ष कर्मों के संपूर्ण क्षय से होता है, और यह कर्मक्षय भी विशुद्ध आराधना करने से होता है, इसलिए हितार्थी भव्य जीवों को हमेशा उस शुद्ध धर्म की आराधना में उद्यम करना चाहिए। क्योंकि उपाय बिना उपेय की सिद्धि नहीं होती है। इस प्रकार की आराधना करने की इच्छावाला भी यदि उस आराधना का स्वरूप कथन करने वाले समर्थ शास्त्रों को छोड़कर, मनस्वी रीति से कितना भी उद्यम करें फिर भी सम्यग् आराधना को नहीं जान सकता है। इसलिए मैं तुच्छ बुद्धि वाला होते हुए भी, गुरु भगवंत की परम कृपा से और शास्त्रों के आलम्बन के द्वारा गृहस्थ और साधु उभय सम्बन्धी अति प्रशस्त महाअर्थ युक्त, मोक्ष और 1. श्रुतदेवी की स्तुति के बाद अपने गुरुदेव की स्तुति करना कहाँ तक योग्य है। यह धर्म प्रेमियों को अवश्य विचारणीय है। संपादक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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