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________________ श्री संवेगरंगशाला उसके हेतु से युक्त आराधना - शास्त्र कहूँगा । अब आराधक को उद्देश्य कर कहते हैं : धर्म के अधिकारी :- आराधना की इच्छा करने वाले को प्रथम से ही तीन योगों को रोकना चाहिए। क्योंकि बेकाबू मन, वचन, काया ये तीनों योग सर्व अशुभ- असुख के सर्जक हैं। इसी निरंकुश तीनों योग के द्वारा आत्मा मलिन होती है। वह इस प्रकार से : मनोयोग :― असमंजस अर्थात् अन्याय रूपी निरंकुशता, विविध विषय रूपी अरण्य में परिभ्रमण करते अरति, रति और कुमति आदि हथिनियों तथा कषायरूपी अपने बच्चों आदि महासमूह के साथ तथा अनेक गुणरूपी वृक्षों का नाश करने वाला प्रमाद रूपी मद से मदोन्मत्त बना हुआ यह मन रूपी हाथी स्थान-स्थान पर अनेक प्रकार की कर्मरूपी रज द्वारा आत्मा को मलिन करता है। धर्माधिकारी वचन योग :- निरर्थक बोलती प्रतिक्षण अलग-अलग शब्दों को धारण करती और विलास - सुनने वालों का मनोरंजन करती वाणी (वचन) भी असती के समान स्वार्थ निरपेक्ष प्रवृत्ति वाली क्षण-क्षण में शब्द रूपी रंग को बदलने वाली अनर्थ को करने वाली है। काय योग :- आत्मा का अन्याय-अहित करनेवाली, पापकारी प्रवृत्ति-व्यापार वाली, सर्वविषय में सभी प्रकार से अंकुश बिना रहने वाली और तपे हुए लोहे के गोले के समान जहाँ स्पर्श करेगी वहीं जलाने वाली, ऐसे सर्वत्र हिंसादि करने वाली यह काया भी कल्याणकारी नहीं है। इन तीनों में निरंकुश एक भी योग इस लोक और परलोक के दुःख का बीज रूप है, तो वे तीनों जब साथ में मिल जाये तब क्या नहीं करते? अर्थात् महाअनर्थ करते हैं। इसलिए उन योगों के निरोध का प्रयत्न करना चाहिए। वह योग निरोध किस तरह होता है? उसे कहते हैं : उन दुष्ट योगों का निरोध प्रशस्त ग्रन्थों के अर्थ का चिन्तन करने से, उनकी रचना करने से, सम्यक् कार्य का आरम्भ करने से होता है, अन्यथा नहीं होता है। क्योंकि उन ग्रन्थों का अर्थ चिन्तन करने से मन का निरोध होता है, उस ग्रन्थ को बोलने से वचन का निरोध होता है और उस ग्रन्थ को लिखना आदि क्रिया करने से काया का निरोध होता है। इन कार्यों में सम्यक् प्रकार से तीनों योगों को जोड़ने से उनके असद् व्यापार को रोका जा सकता है। इस तरह कर्म बंध में एक प्रबल कारण योगों के प्रचार को रोकने वाले महात्मा ही हैं अथवा मेरी आत्मा ही है। योग निरोध से लाभ कहते हैं : योग निरोध का फल :- इस तरह योग निरोध होने से प्रथम उपकार प्रस्तुत ग्रन्थ का सर्जन होता है और दूसरा उपकार संवेग का वर्णन करते हुए स्थान-स्थान पर प्रशम सुख का लाभ होता है। संवेग की महिमा :- स्वप्न में भी दुर्लभ संवेग के साथ निर्वेद आदि परमार्थ तत्त्वों का जिसमें विस्तार हो वही शास्त्र श्रेष्ठ कहलाता है। जिस शास्त्र में पूर्व जन्म के अनादि के अभ्यास से स्वयं सिद्ध और बाल-बच्चें, स्त्री आदि सब कोई सरलता से जान सकें ऐसे काम और अर्थ की प्राप्ति तथा राजनीति के उपाय अनेक प्रकार से कथन करने वाले जो वर्णन है, उन शास्त्रों को मैं निरर्थक समझता हूँ। इस कारण से संवेगादि आत्महितार्थ के प्ररूपक इस शास्त्र के श्रवण और चिन्तन मनन आदि करने में बुद्धिशाली जीवों को हमेशा प्रयत्न करना चाहिए । क्योंकि संवेग गर्भित अति प्रशस्त शास्त्र का श्रवण धन्य पुरुष को ही मिलता है, और श्रवण करने के बाद भी वह समरस (समता) की प्राप्ति तो अति धन्य पुरुष को ही होती है। और भी कहा है कि 8 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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