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________________ ग्रंथ रचना का हेतु और महिमा श्री संवेगरंगशाला जह जह संवेग रसो वण्णिज्जइ तह तहेव भव्वाणं । भिज्जंति खित्तजलमिम्मयाऽऽकुंभ व्व हिययाइं ।।४९।। सारो ऽवि य एसो च्चिय दीहरकालंपि चिण्णचरणस्स । जम्हा तं चिय कंडं जं विंधइ लक्खमज्झे वि ।।५०।। पानी से भरा हुआ मिट्टी का कच्चा घड़ा जैसे गीला होकर भेदित होता है जैसे-जैसे संवेग रस का वर्णन किया जाये, वैसे-वैसे भव्यात्माओं के अशुभ भावों का भेदन होता है। और लम्बे काल तक संयम पालन करने का सार भी संवेग रस की प्राप्ति है क्योंकि बाण उसे कहते हैं जो लक्ष्य का भेदन करें, वैसे आराधना उसे कहते हैं जिससे संवेग प्रकट हो। दीर्घकाल तक तप किया हो, चारित्र का पालन किया हो और बहुत श्रुतज्ञान का भी अभ्यास किया हो फिर भी यदि संवेगरस प्रकट न हुआ हो तो वह सर्व छिलकों को कूटने के समान निष्फल जानना। जिसके हृदय के अन्दर समग्र दिन में एक क्षण भी संवेग रस प्रकट न हो उस निष्फल बाह्य क्रिया के कष्ट का क्या फल मिलने वाला है? पाक्षिक में, महीने में, छह महीने में, या वर्ष के अन्त में भी जिसको संवेगरस प्रकट नहीं हुआ। उस आत्मा को दुर्भव्य अथवा अभव्य जानना। जैसे शरीर के सौन्दर्य में चक्षु है, पति-पत्नी, माता-पुत्र, गुरु-शिष्य आदि युगल रूप जोड़े में परस्पर हित बुद्धि है, और भोजन में नमक सारभूत है वैसे परलोक के विधान (हित) में संवेगरस का स्पर्श करना सारभूत है। संवेग के अनुभवी ज्ञाताओं ने भव (संसार) के अत्यन्त भय को अथवा मोक्ष की तीव्र अभिलाषा को संवेग कहा है ।।५५।। ग्रन्थ रचना का हेतु और उसकी महिमा :- इसलिए केवल संवेग की वृद्धि के लिए ही नहीं परन्तु कर्मरूपी रोग से दुःखी होते भव्य जीवों को और मेरी आत्मा को भी नीरोगी बनाने के लिए, लम्बे समय से सुने हुए गुरुदेव रूपी वैद्य के उपदेश में से वचनरूपी द्रव्यों को एकत्रित करके, भाव आरोग्यता का हेतुभूत, यह अजरामर करने वाला आराधना रूपी रसायण शास्त्र बनाने का मैंने आरम्भ किया है। यह आराधना-संवेगरंगशाला रूपी चन्द्र की किरणों के नीचे रहे हुए दिव्य ज्ञान कान्ति वाले आराधक जीवरूपी चन्द्रकान्त मणि में से पापरूपी पानी प्रतिक्षण झरता है। अर्थात् इस संवेगरंगशाला में कही गयी आराधना करने से पापों का प्रतिक्षण नाश होता है। जैसे कतक फल का चूर्ण जल को निर्मल करता है वैसे जिसका रहस्य संवेग है उस संवेगरंगशाला को पढ़ने वाले, श्रवण करने वाले और उसके अनुसार आराधना करने वालों के कलुषित मन को निर्मल और शान्त करता अब इस ग्रन्थ को वेश्या की और उसके साधु को विलासी की उपमा दी है। इस कारण से इसके पदों में अलंकार का लालित्य है, वेश्या के चरण में अलंकार हैं, सरल, कोमल और सुन्दर हाथ से सुशोभित अखण्ड शरीर के लक्षणों से श्रेष्ठ होती है, उत्तम सुवर्ण और रत्नों के अलंकारों से उज्ज्वल शरीर वाली, कान को प्रिय लगे ऐसी भाषा बोलने वाली, विविध आभूषणों से भूषित शरीर वाली, प्रशान्त रस-उन्माद वाली, अन्य लोगों को विषय सुख देने वाली है, बहुत मान, हाव-भाव द्वारा परपुरुष को काम का आनन्द देने वाली, मिथ्या आग्रह बिना की, कभी भी उसको कितना ही धन मिल जाय तो भी उस धन को बहुत नहीं मानने वाली-असंतोषी, बहुत व्यक्ति के पास से अर्थ को प्राप्त करने वाली, जन्म से लेकर काम के विविध आसन अथवा नृत्य सम्बन्धीकरण के अभ्यास वाली होती है। ऐसी महावेश्या के समान आराधना विधि रूप संवेगरंगशाला है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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