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श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार-पंच महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार सब मिलाकर एक सौ साठ संधियाँ - हड्डियों के जोड़ होते हैं। मानव शरीर में नौ सौ स्नायु, सात सौ नाड़ी और पाँच सौ मांस की पेशियाँ होती हैं।
में
इस तरह शुक्र, रुधिर आदि अशुचि पुद्गलों के समूह से बना अथवा नौ मास तक अशुचि में रहा हुआ और योनि से निकलने के बाद भी माता के स्तन के दूध से पालन-पोषण हुआ और स्वभाव से ही अत्यंत अशुचिमय इस देह में किस तरह पवित्रता हो सकती है? इस प्रकार इस शरीर को सम्यग् देखते या चिंतन करते केले के स्तंभ समान बाहर अथवा अंदर से श्रेष्ठता अल्पमात्र भी नहीं होती है। सर्पों के मणि, हाथियों में दाँत और चमरी गाय में उसके बाल बाल-समूह चामर सारभूत दिखते हैं, परंतु मनुष्य शरीर में कोई एक भी अवयव सार रूप नहीं है। गाय के गोबर, मूत्र और दूध में तथा सिंह के चमड़े में पवित्रता दिखती है, किंतु मनुष्य देह कुछ भी पवित्रता नहीं दिखती। और वातिक, पैत्तिक और श्लेष्म जन्य रोग तथा भूख प्यास आदि दुःख जैसे जलती तेज अग्नि के ऊपर रखा पानी जलाता है वैसे वह नित्य शरीर को जलाते हैं। इस तरह अशुचि देह वाले भी, यौवन के मद से व्यामूढ़ बना 'अज्ञ पुरुष' अपने शरीर के सदृश अशुचिमय से बने हुए भी स्त्री शरीर में राग के कारण केशकलाप को मोर की पिंछ के समान, ललाट को भी अष्टमी के चंद्र समान, नेत्रों को कमलनी के पंखड़ी के सदृश, होठों को पद्मराग मणि के साथ, गरदन को पाँच जन्य शंख के समान, स्तनों को सोने के कलश समान, भुजाओं को कमलिनी के नाल के समान, हथेली को नवपल्लव कोमल पत्तों के सदृश, नितम्बपट को सुवर्ण की शिला के साथ, जांघ को केले स्तंभ के साथ और पैरों को लाल कमल के साथ उपमित करता है। परंतु अनार्य - मूर्ख उससे शरीर अपने शरीर के सदृश अशुचि से बना है, विष्ठा, मांस और रुधिर से पूर्ण और केवल चमड़ी से ढका हुआ है, ऐसा विचार नहीं करता है। मात्र सुगंधी विलेपन, तंबोल, पुष्प और निर्मल रेशमी वस्त्रों से शोभित क्षण भर के लिए बाहर से शोभित होते स्त्री का अपवित्र शरीर को भी सुंदर है। इस तरह मानकर काम से मूढ़ मनवाला मनुष्य जैसे मांसाहारी राग से कटु हड्डी आदि से युक्त दुर्गंधमय मांस को भी खाता है, वैसे ही वह उस शरीर को भोगता है। तथा जैसे विष्ठा से लिप्त बालक विष्ठा में ही प्रेम करता है, वैसे स्वयं अपवित्र मूढ़ पुरुष स्त्री रूपी विष्ठा में प्रेम करता है। दुर्गंधी रस और दुर्गंधी गंधवाली स्त्री के शरीर रूपी झोंपड़ी का भोग करने पर भी जो शौच का अभिमान करते हैं वे जगत में हाँसी के पात्र बनते हैं।
इस तरह शरीरगत इस अशुचि भावों का विचार करते अशुचि के प्रति घृणा करने वाले पुरुष को स्त्री शरीर को भोगने की इच्छा किस तरह हो सकती है? इन अशुचि भावों को अपने शरीर में सम्यग् घृणा रूप देखते पुरुष अपने शरीर में भी राग मुक्त बनता है, तो फिर अन्य के शरीर में क्या पूछना ? यानी पर शरीर में भी राग मुक्त बनता है। वृद्ध अथवा युवान भी वृद्धों के आचरणों से महान् बनता है और वृद्ध या युवान, युवान के समान उद्धत आचरण करने से हल्का बनता है। जैसे सरोवर में पत्थर गिरने से स्थिर कीचड़ को उछालता है, उसी तरह कामिनी के संग से प्रशांत बना भी मोह को जागृत करता है। जैसे गंदा मैला पानी भी कतक फल के योग से निर्मल बनता है, वैसे मोह से मलिन मन वाला भी जीव वैरागी की सेवा से निर्मल बनता है। जैसे युवान पुरुष भी वृद्ध की शिक्षा प्राप्त करने पर अकार्य में से तुरंत लज्जा प्राप्त करता है, उससे रुकावट, शंका, गौरव का भय और धर्म की बुद्धि से वृद्ध के समान आचरण वाला बनता है, वैसे वृद्ध पुरुष भी कामी तरुण की बातों से जल्दी ही अकार्य में विश्वासु, निःशंक और प्रकृति से मोहनीय कर्म के उदय वाला तरुण कामी पुरुष के समान आचरण वाला बनता है। जैसे मिट्टी में छुपी हुई गंध पानी के योग से प्रकट होती है, वैसे प्रशांत मोह भी युवानों के संपर्क में विकराल बनता है । युवान के साथ रहने वाला सज्जन संत पुरुष भी अल्पकाल में इन्द्रिय से चंचल,
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मनुष्य
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