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________________ समाधि लाभ द्वार-पंच महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार-चारुदत्त की कथा श्री संवेगरंगशाला मन से चंचल, स्वेच्छाचारी बनकर स्त्री संबंधी दोषों को प्राप्त करता है। पुरुष का विरह होते, एकांत में, अंधकार और कुशील की सेवा अथवा परिचय में - इन तीनों कारण से अल्पकाल में अप्रशस्त भाव प्रकट होता है। मित्रता के दोष से ही चारुदत्त ने आपत्ति को प्राप्त की तथा वृद्ध सेवा से पुनः उन्नति को प्राप्त किया था । । ८०६४ । । वह कथा इस प्रकार है : चारुदत्त की कथा चंपा नगरी में भानु नामक महान् धनिक श्रावक रहता था। उसे सुभद्रा नाम की पत्नी और चारुदत्त नामक पुत्र था। चारुदत्त युवान बना फिर भी साधु के समान निर्विकारी मन वाला वह विषय का नाम भी नहीं चाहता था। तो फिर उसे भोग की बात ही कैसे होती? इसलिए माता, पिता ने उसके विचार बदलने के लिए उसे दुर्व्यसनीय मित्रों के साथ में जोड़ा, फिर उन मित्रों के साथ में रहता वह विषय की इच्छावाला बना । इससे वसंतसेना वेश्या के घर बारह वर्ष तक रहा और उसने उसमें सारा धन नाश किया। फिर वेश्या की माता ने उसे घर से निकाल दिया। वह घर गया, और वहाँ माता-पिता की मृत्यु हो गई, ऐसा सुनकर अति दुःखी हुआ, अतः व्यापार की इच्छा से पत्नी के आभूषण लेकर वह मामा के साथ उसीरवृत्त नामक नगर में गया । वहाँ से रुई खरीदकर तामलिप्ती नगर की ओर चला और बीच में ही दावानल लगने से रुई जल गयी। फिर घबड़ाकर उस मामा को छोड़कर जल्दी घोड़े पर बैठकर पूर्व दिशा में भागा और वह प्रियंगु नगर में पहुँचा । वहाँ पर सुरेन्द्र दत्त नामक उसके पिता के मित्र ने उसे देखा और पुत्र के समान उसे बड़े प्रेम से बहुत समय तक अपने घर में रखा। फिर सुरेन्द्र दत्त के साथ जहाज भरकर धन कमाने के लिए अन्य बंदरगाह में जाकर चारुदत्त ने आठ करोड़ प्राप्त किया। वहाँ से वापिस आते उसके जहाज समुद्र में नष्ट हो गये और चारुदत्त को महामुसीबत से एक लकड़ी का तख्ता मिला और उसके द्वारा उस समुद्र को पारकर मुसीबत से राजपुर नगर में पहुँचा । वहाँ उसे सूर्य समान तेजस्वी एक त्रिदंडी साधु मिला। उस साधु ने उससे पूछा कि तूं कहाँ से आया है? चारुदत्त ने उसे सारी अपनी बात कही । त्रिदंडी ने कहा कि - हे वत्स ! आओ! पर्वत पर चलें और वहाँ से, चिरकाल से पूर्व में देखा हुआ विश्वासपात्र कोटिवेध नामक रस को लाकर तुझे धनाढ्य करूँ । चारुदत्त ने वह स्वीकार किया । वे दोनों पर्वत की गाढ़ झाड़ियों में गये, और वहाँ उन्होंने यम के मुख समान भयंकर रस के कुएँ को देखा। त्रिदंडी ने चारुदत्त से कहा कि - भद्र! तुम्बे को लेकर तुम इसमें प्रवेश करो और रस्सी का आधार लेकर शीघ्र फिर वापिस निकल आना। फिर रस्सी के आधार से चारुदत्त उस अति गहरे कुएँ में प्रवेश कर जब उसके मध्य भाग में खड़े होकर रस लेने लगा। तब किसी ने उसे रोका कि- हे भद्र! रस को मत लो। मत लो। तब चारुदत्त ने कहा कि—तुम कौन हो? मुझे क्यों रोकते हो ? उसने कहा कि - मेरे जहाज समुद्र में नष्ट हो गये थे। धन के लोभ में मैं वणिक् यहाँ आया था और मुझे रस के लिए त्रिदंडी ने रस्सी से यहाँ उतारा था, मैंने रस से भरा तुम्बा उसे दिया, तब उस पापी ने इस तरह स्वकार्य सिद्धि के लिए उस रस तुम्बा को लेकर रस कुएँ की पूजा के लिए बकरे के समान, मुझे कुएँ में फेंक दिया। रस में नष्ट हुए आधे शरीर वाला हूँ, अब मेरे प्राण कंठ तक पहुँच गये हैं, और मरने की तैयारी है। यदि तूं इस रस को लेगा और उसे देगा तो तेरा भी इसी तरह विनाश होगा। तूं तुम्बा मुझे दे कि जिससे वह रस भरकर मैं तुझे दूँ। उसने ऐसा कहा, तब चारुदत्त ने उसे तुम्बा दिया, फिर रस भरकर वह तुम्बा उसने चारुदत्त को दिया, उस समय चारुदत्त ने उसमें से निकालने के लिए हाथ से रस्सी हिलाई। तब रस की इच्छा वाले त्रिदंडी उसे खींचने लगा । परंतु जब चारुदत्त किसी तरह बाहर नहीं निकला तब चारुदत्त ने रस को कुएँ में फेंक दिया। इससे क्रोधायमान होकर त्रिदंडी ने उसे रस्सी सहित छोड़ 337 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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