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________________ समाधि लाभ द्वार-पंच महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला करने को कोई शक्तिमान नहीं है। रत्न सहित परंतु शेरनी युक्त गुफा के समान और शीतल जल वाली परंतु घड़ियाल वाली नदी के समान स्त्री मनुष्यों के मन को हरने वाली होने पर भी उद्वेग करने वाली है, अतः इसे धिक्कार है। कुलीन स्त्री भी आँखों से देखा और सत्य भी कबूल नहीं करती है, अपने द्वारा कपट किया हो उसे भी गलत सिद्ध कर देती है। और पुरुष के प्रति चंदन घो के समान अपने पाप को छुपाकर रखती है। मनुष्य का स्त्री के समान दूसरा शत्रु नहीं है, इसलिए स्त्री को न + अरि= नारी कहते हैं । और पुरुष को सदा प्रमत्त - प्रमादी बनाती है, इसलिए स्त्री को प्रमदा कहते हैं। पुरुष को सैंकड़ों अनर्थों में जोड़ती है, इसलिए इसे विलया कहते हैं। 1 तथा पुरुष को दुःख में जोड़ती है, इसलिए उसे युवति अथवा योषा कहते हैं। अबला इस कारण से कहते हैं कि उसके हृदय में धैर्य-बल नहीं होता है। इस तरह स्त्री के पर्याय वाचक नाम भी चिंतन करने से असुखकारक होते है। स्त्री क्लेश का घर है, असत्य का आश्रम है, अविनयों का कुल घर (बाप दादों का घर ) है, असंतोषी अथवा खेद का स्थान है और झगड़े का मूल है तथा धर्म के लिए महान् विघ्न है, अधर्म का निश्रित प्रादुर्भाव है, प्राण को भी संदेह रूप और मान-अपमान का हेतु है, स्त्रियाँ पराभवों का अंकुर है, अपकीर्ति का कारण है, धन का सर्वनाश है, अनर्थों का समागम है, दुर्गति का मार्ग है और स्वर्ग तथा मोक्ष मार्ग की दृढ़ अर्गला रूप रुकावट है, एवं दोषों का आवास है, सर्व गुणों का प्रवास या देश निकाला है। चंद्र भी गरम हो, सूर्य भी शीतल हो और आकाश भी स्थान रहित बन जाये, परंतु कुलीन स्त्री दोष रहित भद्रिक सरल नहीं बनती है। इत्यादि स्त्री संबंधी अनेक दोषों का चिंतन करने वाले विवेकी पुरुष का मन प्रायः स्त्रियों से विरागी बनता है। जैसे इस लोक में दोषों को जानकर विवेकी लोग सिंह आदि का त्याग करते हैं, वैसे दोषों को जानकर स्त्रियों से भी दूर रहें। अधिक क्या कहें? स्त्री कृत दोषों को इस ग्रंथ में ही पूर्व में अनुशास्ति नामक द्वार के अंदर गुरुदेव ने कहा है । जो वस्तु शुद्ध सामग्री से बनी हो, उसका तो मूल कारण शुद्धि होने से शुद्ध होती है, परंतु अशुचि से बने हुए शरीर की शुद्धि किस तरह हो सकती है? क्योंकि शरीर का उत्पत्ति कारण शुक्र और रुधिर है, ये दोनों अपवित्र हैं, इसलिए अशुचि से बने हुए घड़े के समान शरीर भी अशुचिमय - अशुद्ध है ।।८०२७ ।। वह इस प्रकार से : गर्भावस्था का स्वरूप :- माता-पिता के संयोग से रुधिर और शुक्र के मिलन से जो मैला - अशुचि होती है, उसमें प्रारंभ के अंदर ही जीव की उत्पत्ति होती है। उसके बाद उस अशुचि से सात दिन तक गर्भा लपेटन रूप सूक्ष्म चमड़ी तैयार होती है, फिर सात दिन में सामान्य पेशी बनती है। उसके बाद एक महीने में घन रूप बनता है और वह दूसरे महीने में वजन में एक कर्ष न्यून एक पल अर्थात् साठ रत्ति जितना बनता है, तीसरे महीने में मांस की घन पेशी बनती है। चौथे महीने में माता को दोहद उत्पन्न होता है और उसके अंगों को पुष्ट करता है, पाँचवें महीने में मस्तक, हाथ, पैर के अस्पष्ट अंकुर प्रकट होते हैं, छट्ठे महीने में रुधिर पित्त आदि धातु एकत्रित होते हैं, सातवें महीने में सात सौ छोटी नाड़ी और पाँच सौ पेशी बनती हैं। आठवें महीने में नौ नाड़ी (बड़ी नसें) और सर्व अंग में साढ़े तीन करोड़ रोम उत्पन्न होते हैं। फिर जीव प्रायः पूर्ण शरीर वाला बनता है, नौवें अथवा दसवें महीने में माता • और अपने को पीड़ा करते करुण शब्द से रोते योनि रूपी छिद्र में से बाहर निकलता है, और अनुक्रम से बढ़ता है। उस शरीर में विशाल प्रमाण में मूत्र और रुधिर तथा एक कुडव प्रमाण श्लेष्म और पित्त है, आधा कुडव प्रमाण शुक्र और एक प्रस्थ प्रमाण मस्तक का रस होता है, आधा आढक चरण एक प्रस्थ मल और बीभत्स मांस मज्जा से तथा हड्डी के अंदर होने वाले रस से भरा हुआ, तीन सौ 1. मयणं व मणो मुणिणोवि हंत सिग्धं चिय विलाइ (भत्त १२७) (पाइअसद्दमहण्णवो पृ.७६६) Jain Education International For Personal & Private Use Only 335 www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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